कठिन है रहगुज़र थोड़ी दूर साथ चलो/बहुत बड़ा है सफ़र थोड़ी दूर साथ चलो/तमाम उम्र कहाँ कोई साथ देता है/मैं जानता हूँ मगर थोड़ी दूर साथ चलो
मंगलवार, अक्टूबर 20, 2009
इतिहास का एक अजनबी
ये तब की बात है जब मैं तब पांच-छह साल का था। मेरी मम्मी चूंकि पत्रकार थी, इसलिए काम के सिलसिले में अक्सर उनका शहर से बाहर आना-जाना लगा रहता था। मेरी मां सोचती थी कि कि चूंकि मेरी कोई बहन या भाई नहीं है इसलिए मेरे लिए बेहतर ये है कि मुझे वे नाना-नानी के पास छोड़ जाएं। वहां मेरे मामा और मौसियों के बच्चों के संग मेरा मन लगा रहेगा। नीम के पेड़ के पास हम खेल रहे थे। अचानक मेरे एक ममेरे भाई ने चिल्ला कर कहा-आतिश का सूसू नंगा है। मैं नंगा का मतलब जानता था-यह शब्द अक्सर मेरी नानी तब इस्तेमाल करती थी जब कोई बच्चा पैंट पहनने में आनाकानी करता था। थोड़ी देर बाद हमलोग घर आए, तो वहां भी मेरे कजिन ने वही वाक्य चिल्लाकर दोहराया। इस बार घर के तमाम लोग मेरी तरफ देखकर हंसने लगे। यह वाक्य मेरी स्मृत्तियों में खचित हो गया। तभी मुझे लगा कि मैं अपने दूसरे सिख भाईयों से अलग हूं। एक परिवार में होते हुए भी मैं सबसे अलग क्यों हूं? मैंने सोचा कि मम्मी के लौटते ही सबसे पहले इसका मतलब पूछूंगा कि मेरे कजिन ने मेरे सूसू को नंगा क्यों कहा? इसी अहसास ने मुझे अपने मुसलमान पिता और उनके देश पाकिस्तान के बारे में जानने के बारे में जिज्ञासा पैदा की।
जुलाई 2002 की बात है। मैं पहली बार अपने पिता से मिलने पाकिस्तान जा रहा था। वीजा के सिलसिले में जब मैं पाकिस्तान हाई कमीशन गया था, तो पता चला वे लोग मेरे पिता को जानते हैं। चूंकि मेरा पासपोर्ट ब्रिटेन का था, इसलिए वीजा में यह विकल्प था कि मैं कहीं से भी पाकिस्तान में प्रवेश कर सकता हूं। अटारी बोर्डर से उस पार जाने पर पता चला कि पासपोर्ट-वीजा की जांच कर रहे हाकिम भी मेरे पिता को जानते हैं। वहां एक साहब ने मुझसे पूछा कि मैं किस सिलसिले में यहां आया हूं, तो मैंने बताया कि मेरे एक दोस्त का जन्म दिन है। थोड़ी दूर से मुझे सही करती हुई एक आवाज आई-सालगिरह। तभी एक सज्जन ने आकर पूछा कि ओह, आप इंडिया से आए हैं। मैंने कहा, हां। उन्होंने फिर पूछा, मगर आपके वालिद तो सलमान तासीर साहिब हैं? पर खैर वह प्रसंग वहीं समाप्त हुआ।
लाहौर के सबसे पाश इलाके में मेरे पिता का फार्म हाउस है, जहां वे रहते थे। अब तो खैर वे पंजाब के गवर्नर हैं, सो जाहिर है अब वे गवर्नर हाउस के वासी हैं। इसके साथ ही वे पाकिस्तान के बड़े उद्योगपतियों में से एक हैं। एक में उन्होंने ठान लिया था कि वे पूरी तरह से अपने बिजनेस में रमे रहेंगे, पर बाद में वे फिर राजनीति में आए। मैंने पाया कि मेरे पिता हालांकि बहुत कट्टर अर्थों में मजहबी नहीं हैं। वे शराब के शौकीन हैं और कोई भी शाम उनकी शराब के बगैर नहीं शुरू होती है। फिर भी वो खुद को बहुत गहरे अर्थों में सांस्कृतिक मुसलमान मानते हैं। यह बात मेरे समझ में नहीं आई कि उनका रहन-सहन, उनका खान-पान, उनका आचरण कहीं से भी मजहब की कोई बू नहीं तो फिर ये सांस्कृतिक मुसलमान होना क्या है? हर चीज में इस्लाम की उच्चता साबित करने की कोशिश करने वाले अपने पिता के इस्लाम को जानने के लिए मैंने एक संकल्प ले लिया।
सांस्कृतिक मुसलमान होने का मतलब तलाश करने के लिए आतिश ने सीरिया और सऊदी अरब से लेकर तुर्की, ईरान, पाकिस्तान आदि देशों की यात्रा करने की सोची। ताकि इन देशों के विभिन्न वर्गों के लोगों से मिलकर उनके मनोविज्ञान और उस मनोविज्ञान को बनाने में उनके मजहब के योगदान के बारे में जाना जा सके। ..और आतिश का यह सफर सवालों के जवाब तलाश करने का एक बड़ा सफर साबित हुआ। अगर इस्लामी उम्मा सिर्फ एक खयाल नहींयथार्थ है तो फिर इस्लामी देश अलग-अलग सीमाओं में क्यों बंधे हैं? और बाकी देशों की तरह एक धर्म होने के बावजूद आपस में युद्ध क्यों करते हैं? दुनिया भर के दारुल हर्ब को दारुल इस्लाम में बदल डालने के लिए लड़ रहे मुजाहिदीनों के संदर्भ में सहज ही उनका सवाल है कि मुस्लिम देशों के बीच भाईचारे की जगह क्यों तनातनी पैदा होती है? संयोग से इन सवालों के जवाब उस आतिश ने तलाशने की कोशिश की है जिसे डेढ़ साल की उम्र में उसके पिता ने त्याग दिया था और दोबारा पलटकर फिर कोई खैरियत न पूछी।
व्यापक अर्थ में सांस्कृतिक मुसलमान होने के मतलब को जानने-समझने के लिए आतिश ने सीरिया, सऊदी अरब, तुर्की, ईरान और पाकिस्तान की यात्रा की। हर देश में जाकर वे हर वर्ग के लोग से मिले। हर तरीके से उनमें घुल-मिलकर उनके भीतर के इस्लाम को जानने की कोशिश की। जिसके बाद जवाब की खोज में निकले आतिश को जवाब बेहद कम और सवाल ही अधिक मिले। तुर्की में उदारवादी व्यवस्था की जगह वहां के लोग कट्टर इस्लामिक व्यवस्था का ख्वाब देखते हैं। आतिश की इंस्तांबुल में मुलाकात ऐसे इस्लामपरस्तों से हुई जो धर्मनिरपेक्ष सत्ता से तकरीबन नफरत करते हैं और उनका बस चले तो वे तुरंत वहां शरिया कानून लागू कर दें। मगर यह चीज आतिश को ईरान को में परेशान करती है कि जैसी शरिया आधारित व्यवस्था तुर्की के लोग चाहते हैं वह तो पहले से ईरान में कायम है। धार्मिक कड़ाई और बंदिश का असर यह है कि ईरानी इस व्यवस्था से बगावत पर उतारू हैं। तेहरान में आतिश को ऐसे लोग भी अच्छी-खासी तादाद में मिले जो गुप्त रूप से हरे राम-हरे कृष्ण संप्रदाय को मानते हैं। कान्हा की मूर्ति के सामने भजन-कीर्तन करते हैं, नाचते-गाते हैं। ईरान में उनकी मुलाकात एक ऐसे चित्रकार से होती है, जो इस्लाम में बहुत आस्था रखता है और हर दम अपनी कार में कुरआन रखता है। एक दिन उसका एक मित्र कुरआन उठाकर फेंक देता है और कहता है-इसमें कुछ नहीं रखा है। उस चित्रकार का विरोध इस्लाम से ज्यादा उस सरकार का विरोध था जो जनता पर जबर्दस्ती मजहब को लादती है। आतिश लिखते हैं कि, ईरान जाने के बाद मुझे यह पता लगा सीरिया में उसका इलहाम हुआ कि मजहबी विचार को आधुनिक दुनिया के खिलाफ एक नकारात्मक विचार से जब तक सकारात्मक प्रयोग में बदला जाता है, तो वह किस तरह हिंसक और आत्मघाती बन जाता है। तुर्की के लोग उस इस्लामिक व्यवस्था की कल्पना करते हैं जो मोहम्मद साहिब के समय में रही होगी। क्योंकि उन्हें लगता है कि आधुनिकता दरअसल इस्लाम के खिलाफ एक साजिश है। ..और तुर्की वालों की यह कल्पना जब ईरान में पहले से साकार है तो वहां इस व्यवस्था से बगावत की दबी हुई चिंगारी दिखती है। लब्बोलुआब यह कि बलपूर्वक मानने को बाध्य की गई किसी भी व्यवस्था से सहज की प्रतिकार की आशंका बलवती होने लगती है।
आतिश ने मुस्लिम दुनिया की मानसिकताओं, प्राथमिकताओं और विसंगतियों को बहुत गहराई में जाकर देखने की कोशिश की है। हालांकि यहां इस बात को भूलना नहीं चाहिए कि इन तथ्यों की व्याख्या के समय आतिश के मन में पिता से मिली तल्खी भी कहीं न कहीं बनी रही है। लेखक ने अपने निजी जीवन में मौजूद तल्खी और गुस्से को बेहद बड़े कैनवास पर देखने की कोशिश की है इसलिए कई जगह ऐसा लगता है कि उनके निष्कर्षो से तत्काल मुतमइन होना सहज नहीं है। बावजूद इसके आतिश की भाषा, निजी अनुभव और अंदाजे-बयां बेहद मोहक है। जिसकी तस्दीक उनका परिपक्वता की ओर बढ़ता हुआ निजी कंठ-स्वर है।
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