मंगलवार, अक्टूबर 20, 2009

मां कहकर चीखते हुए..........


आजकल अखबार की नौकरी में कई तरह के काम की अपेक्षा की जाती, कई तरह की फरमाइशें की जाती हैं. मदर्स डे पर फरमाईश की गई कि कृपया मदर्स डे के अवसर पर एक लेखनुमा विज्ञापन लिख दीजिए. सो यह लेखनुमा विज्ञापन लिखा और यह छपा था.

रुई के फाहे जैसा नाजुक, कोमलता और रंग में गुलाब के फूल जैसे शिशु को देखते ही मां निहाल हो जाती है। नन्हा शिशु कुछ नहीं जानता, मगर अपनी मां को पहचान लेता है। मां की आंचल को अपनी मुट्ठी में बांधने की कोशिश करने लगता है और मां अपने नवजात की इस हरकत को देखते ही सब कुछ भूल जाती है। शिशु की एक-एक गतिविधि मां को अपार सुख देती है। इस सुख के लिए मां अपनी रातों की नींद से लेकर सब न्यौछावर करने के लिए तत्पर रहती हैं। ..और यह चीज शिशु काल से ही बच्चे के मन में यह एहसास पैदा कर देती है कि मां के रहते उसे कुछ नहीं हो सकता। मां को सब कुछ पता है। मां आएगी तभी बच्चा खाएगा, मां साथ में सोएगी तभी सोएगा यानी कोई भी काम बगैर मां के पूरा होना लगभग नामुमकिन। इसलिए स्वाभाविक रूप से जन्म से ही बच्चा हर बात में मां-मां कहने का अभ्यस्त हो जाता है। मां के बगैर जीवन की कोई आकुल पुकार तक नहीं निकलती। राह चलते यदि कहीं ठोकर लग जाए, कोई भयानक चीज दिख जाए, कोई हौलनाक मंजर नजर के सामने से गुजर जाए तो बुजुर्गो के मुंह से भी बरबस मां शब्द ही निकलता है।

हमारे शास्त्रों में भी मां का दर्जा पिता से ऊपर होता है। तभी तो गोस्वामी तुलसीदास राम से पहले सीता माता का नाम लेना आवश्यक जानकर कहते हैं-सीताराम। यहां तक कि दुनिया को भी कहते हैं सियाराम मय सब जग जानी। राम से पहले सिया। कृष्ण से पहले राधा- राधाकृष्ण कहने का चलन इस बात को दिखलाने के लिए पर्याप्त है कि राम और कृष्ण वाकई ईश्वर हैं पर आम जनमानस में पहले सीता माता और राधा का स्थान है। तभी तो बंगाल में रिश्ते की हर स्त्री को मां कहने का रिवाज है। मसलन पिता की बहन को पिसी मा, बहू को बऊमा, बहन को दीदीमा, सास को ठाकुरमा, नानीमा, दादीमा यानी हर स्त्री को मां कहने का चलन है। बंगाल में हर स्त्री यानी मां। भारतीय परंपरा में मां के रूप में स्त्री को सर्वश्रेष्ठ दर्जा दिया गया है।

धार्मिक गाथाओं में भी तमाम देवता जब आसुरी शक्तियों से नहीं जीत पाते हैं तो मातृ शक्ति का आह्वान करते हैं। यह मातृ शक्ति देवी दुर्गा, काली, छिन्नमस्ता, चंडी आदि अनेक रूपों में राक्षसों का विनाश करती हैं। जिस तरह हमारे देवताओं को मातृ शक्ति पर सबसे ज्यादा भरोसा होता है उसी तरह छात्रावासों में रह रहे बच्चे को लगता है-तुझे सब है पता है न मां? रात को डरावना सपना देखता है और मां कहकर चीखते हुए उठकर बैठ जाता है। शर्ट के टूटे हुए बटन को देखता है और याद आती है मां। मेस के खाने से जब-जब ऊबता है तो याद आता रहता है मां के हाथ की दाल। मां के हाथ की खीर। मां के हाथ की सब्जी। इसलिए अकारण नहीं कि जवान होने पर भी आदमी पत्नी में अपनी मां छवि ढूंढने की असफल कोशिश करता रहता है। पत्नी की अधिकतर चीजों की तुलना अपनी मां से करता है। यह स्वाभाविक भी है। क्योंकि पैदा होने के साथ ही बच्चा जीवन भर अपनी मां से ज्यादा निकट नहीं किसी को नहीं पाता। वैज्ञानिक तथ्य यह है कि सद्य:प्रसूता स्त्री के देह से एक खास किस्म की गंध निकलती है, जो घर की अन्य महिलाओं के देह से नहीं निकलती। उस गंध के सहारे किसी को नहीं पहचानने वाला बच्चा भीड़ में भी अपनी मां को पहचान लेता है।

आप बड़े हो जाते हैं, कमाने लगते हैं, घर-परिवार बसा लेते हैं। मां से दूर अलग शहर में रहते हुए हम शायद अपनी मां की चिंता उतनी नहीं करते, जितनी वह दूर रहते हुए भी हमारी करती है। क्या मां की ममता का मोल चुकाया जा सकता है? यादों की बहुत छोटी-छोटी लेकिन महत्वपूर्ण पिटारी को जरा खोलिए और याद करिए कि कितनी बार नन्हीं लातें आपने उस पर चलाई होंगी, कितनी बार आपने घर में क्या-क्या तोड़ा-बिखेरा होगा और मां ने सब कुछ मुस्कुराते हुए समेटा। कितनी मिन्नतों के बाद रोटी का एक टुकड़ा, चावल के चार दाने आप चुगते थे और आपसे ज्यादा आपकी भूख से वह अकुलाती रहती थी। सुहानी शाम को जब दीया-बाती करते, श्लोक या मंत्र बुदबुदाते हुए अनायास ही जब उसने आपके भीतर घर की परंपरा और संस्कार के बीज डाले थे। बात-बात पर अपनी फरमाईशें और उसे पूरा करने के लिए खुशी-खुशी तत्पर मां की याद आप भूले न होंगे। दाल-चावल से लेकर मटर-पुलाव, अजवाइन डली नमकीन पूरियों की याद, कुरकुरी भिंडी, घी-जीरे में बघारी दाल सहित ऐसी कितनी ही सब्जियों की यादें आपके जेहन में होंगी जो मां के अलावा और किसी की याद दिला ही नहीं सकते।

जब 102-103 डिग्री बुखार में आप तप रहे होते थे तो आपकी सुखद नींद के लिए सारी रात कौन जागती थी? बेशक मां। सो जा बेटा, बीमारी हाथी की चाल से आती है और चींटी की चाल से जाती है..यह दिलासा आपको आज भी मां की याद दिला ही देता होगा। बड़े होने पर हम अपनी कम पढ़ी-लिखी या अनपढ़ मां की सलाहों पर, समझदारी पर भरोसा नहीं करते हैं। तभी तो मां कहती है कि जब मेरे बेटे को कुछ भी बोलना नहीं आता था तो यह क्या चाहता है-मैं जान जाती थी। अब जबकि यह सब कुछ बोलना जानता है, बहुत कुछ बोलता रहता है तो इसकी मैं एक भी बात नहीं समझ पाती हूं। कल जिसने हमें बोलना सिखाया, हमें भाषा दी, आज हम उसी को बोलने नहीं देते हैं। मां पुरानी, उसके मूल्य पुराने, उसकी बातें पुरानी। हम बर्दाश्त ही नहीं कर पाते हैं कि किसी भी नए चीज में मां आपका हित-अहित देखती-परखती रहती है। आपके लिए क्या अच्छा होगा, क्या बुरा हो सकता है इसको आंकती रहती है। आपकी झुंझलाहट के बावजूद हिदायत देना नहीं भूलतीं? हमें एकांत में कभी मां की इस आदत पर सोचना चाहिए और जब आप सोचेंगे तो पाएंगे कि आप खुद एक गहरे ममत्व के गिरफ्त में हैं। कितनी ही प्रार्थनाओं के बाद आप भगवान की सूरत नहीं देख सकते, मगर मां को ईश्वर के प्रतिरूप के रूप में देख ही सकते हैं।

3 टिप्‍पणियां:

सुशीला पुरी ने कहा…

सचमुच मां ही है जो कभी हमें अपनी छत्र-छाया क रहने नही देती ........कुछ नही होगा तो अपने आँचल से ढांप लेगी .

अजित वडनेरकर ने कहा…

पंडज्जी,
इतनी सारी पोस्टें क्या बीस अक्तूबर को ही लिख मारीं?

भाई, हर रोज़ एक पोस्ट को पब्लिश करना था न। भोले हो या भले हो? क्या कहें?

Pankaj Parashar ने कहा…

शुक्रिया बड़े भाई, आप ख्वाब का दर पर तशरीफ लाए यह देखकर बेइंतहा खुशी हुई.

दरअसल हुआ यह कि पिछले कई महीनों से मैं ब्लाग पर कुछ लिख नहीं पा रहा था. ये जो लेख हैं वे तमाम अखबारों के लिए लिखा था, पर भेज नहीं पाया. सो एक दिन सारा ब्लाग पर डाल दिया कि चलो इतने दिनों की कसर पूरी. आमीन.