शनिवार, मई 05, 2007

आख़िर यह किसकी दुनिया है?

दुनिया भर की सरकारों के प्रतिनिधियों और वैज्ञानिकों ने जलवायु परिवर्तन की रिपोर्ट को प्रकाशित कर दिया है. इस रिपोर्ट में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे नया कहा जा सके. न ऐसा कुछ है जिसकी आशंका पहले न जताई गई हो. जो बात नई है वह यह कि अब तक जो आशंकाएँ जताई जा रही थीं वो धरातल पर दिखने लगी हैं. इस रिपोर्ट में कहा गया है कि आने वाले दिनों में पानी का संकट होगा, फसलें चौपट हो जाएँगी और तरह-तरह की बीमारियाँ फैलेंगी. अगर पारा इसी तरह चढ़ता रहा और औसत तापमान डेढ़ से ढाई प्रतिशत बढ़ गया तो 20 से 30 प्रतिशत वनस्पतियाँ और जानवरों की प्रजातियाँ ख़त्म हो जाएँगी.
पानी की किल्लत झेलने वाले देश अफ़्रीका के होंगे. बारिश के पानी से होने वाली फसल 50 फीसदी कम हो जाएगी. वह भी अफ़्रीकी देशों में. फसल की पैदावार कम होगी मध्य और दक्षिण एशिया में. ज़ाहिर है बीमारियाँ भी इन्हीं देशों में फैलेंगी. जब सब आँकड़े बता रहे हों कि भुगतेंगे वो जो वास्तव में जलवायु परिवर्तन के दोषी कभी नहीं थे. तो रिपोर्ट में इसे स्वीकार भी करना पड़ा. इस रिपोर्ट ने जलवायु परिवर्तन या ग्लोबल वार्मिंग के बहाने से एक पुराने सवाल को फिर से कुरेद दिया है कि आख़िर यह दुनिया किसकी है और किसके लिए है?
इसे कौन नहीं जानता कि पिछली दो सदियों में प्रदूषण के लिए मूल रुप से कौन ज़िम्मेदार रहा है? जो उद्योग पर उद्योग लगाते चले गए और विकसित देश बन गए उनका नाम इस रिपोर्ट में पीड़ितों की सूची में नहीं है. नाम उनका है जो ग़रीब हैं और अगर गरीबी से थोड़ा उबरे हैं तो अभी भी विकसित नहीं हुए हैं. विकासशील हैं. वो पहली और दूसरी दुनिया में नहीं गिने जाते वो तीसरी दुनिया के देश कहलाते हैं. निश्चित रुप से यह रिपोर्ट और ऐसी कई रिपोर्टें तीसरी दुनिया के देशों के लोगों को तकलीफ़ पहुँचाती है. लेकिन क्या यह तकलीफ़ उन्हें संवेदनशील भी बनाती है? शायद नहीं. जैसी वैश्विक समाज में ग़रीब देशों की स्थिति है वैसी ही तीसरी दुनिया के देशों में ग़रीब लोगों की है.
क्या यह सच नहीं है कि सीवरों और नालियों का रास्ता रोकने वाला कचरा कोई और जमा करता है लेकिन उससे आई बाढ़ झुग्गियों और निचली बस्तियों में रहने वाले लोग झेलते हैं? सड़कों पर धुँआ कारें उगलती हैं और दमे से लेकर टीबी तक के शिकार वो लोग होते हैं जो या तो बसों में सफ़र करते हैं या फिर जिन्हें बस का सफ़र भी नसीब नहीं. दिल्ली में यमुना प्रदूषित हो गई तो किसे फ़र्क पड़ रहा है. कार वाले यमुना के पुल तक पहुँचते-पहुँचते शीशे चढ़ा लेते हैं ताकि सड़ाँध से बच सकें लेकिन उनका क्या जिनके लिए यमुना का पानी ही निस्तारी का एक मात्र साधन था? चाहे दिल्ली हो या मुंबई या लखनऊ या पटना. अमीर या धनी समाज को लगता है कि अगर उसे सहना नहीं पड़ रहा है तो वह चिंता भी क्यों करे? और अगर चिंता करता भी है तो अपनी ग़लती सुधारने की जहमत कभी नहीं उठाता. न उनकी किसी को चिंता है और न वे ख़बर बनते-बनाते हैं. भारत जैसे देश में भी क्रिकेट की शीर्ष संस्था की बैठक तो पहली ख़बर होती है लेकिन दुनिया भर के ग़रीबों की पीड़ा 'डाउन-मार्केट' ख़बर होने के नाते भीतर के पन्नों में औपचारिक ख़बर बनी रह जाती है.
तो फिर अफ़्रीकी देश भुगतें, दक्षिण एशियाई देश सहें तो इससे पश्चिमी देशों को क्योंकर तकलीफ़ होने लगी? उन्हें न्यूऑर्लियान्स में आई भयानक बाढ़ और फ़्राँस की भयानक गर्मी और यूरोप का तूफ़ान अभी भी अपवाद की तरह लगता है. ग़रीब, चाहे लोग हों, समाज हो या फिर देश, उसका प्रारब्ध ही सहना है.
यह कौन सी दुनिया है और किसकी दुनिया है और यह दुनिया ऐसी है क्यों?

3 टिप्‍पणियां:

अफ़लातून ने कहा…

लम्बे अन्तराल के बाद ।

अभय तिवारी ने कहा…

हम सब रेत में मुँह दाब के पड़े हैं.. मन्थरा बुद्धि हो चुकी है सबकी..आप बताइये हम लोग सुनेंगे नहीं.. दिखाइये देखेंगे नहीं.. हमें स्पाइडरमैन ३ देखनी है.. आप की मैली गंगा में हमारी कोई रुचि नहीं.. क्यों लौट के आए आप.. जहां थे वहीं चले जाइय़े.. हमे अपने नरक में मरने दीजिये.. जब डूबने लगेंगे तब आवाज़ दे के बुला लेंगे आपको..अभी हम अपने हाल में मौज़ कर सकते हैं.. डिस्को कर सकते हैं.. और क्यों ना करें.. जीवन है किसलिये.. इस शरीर का अधिकतम भोग करने के लिये.. आओ भोगें अपने आप को..

Divine India ने कहा…

सबाल आपका वेहद सच है…हमेशा परिणाम भुगतना विकासशील देशों को पड़ता है…जिन्होनें पहल की थी इसकी वो इससे बच जाते हैं…। अच्छा लिखा है…बधाई!