मंगलवार, मई 29, 2007

हिंदी साहित्य की पत्रिकाओं में इन दिनों ऐसे-ऐसे तेजस्वी संपादकों का आगमन हो रहा है कि वे अपनी कथित टी.आर.पी. बढ़ाने के लिए खुद भी नंगई पर उतर आए हैं और प्रतिष्ठित लेखकों को भी अपनी लंपटता से परेशान कर रहे हैं. इस तथाकथित साहित्यिक युद्ध में अमानवीयता का बोलबाला बढ़ता जा रहा है. क्या यही है मनुष्य के साथ खड़े होने वाले साहित्य का मानवीय पक्ष?

7 टिप्‍पणियां:

रवि रतलामी ने कहा…

ठीक है, आपने हेडलाइन पढ़ दी.
बाकी की ख़बर किधर है? :)

Priyankar ने कहा…

जब बात रखने का मन हो तो यह काम साफ़-साफ़ हो . इस तरह संकेतों में कहना दूर-दराज़ के पाठकों के लिए कोई अर्थ नहीं रखता . सच के साथ थोड़ी हिम्मत भी ज़रूरी होती है .

संजय बेंगाणी ने कहा…

नंगाई तो चलो अब चाल में है. मगर आप बात पूरी रखें, ताकि समझमें आये.

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

पराशर जी,कृपया विस्तार से लिखे।हम पूरी बात जानने को उत्सुक है।

आदिविद्रोही ने कहा…

नमस्कार भाई
क्या हो गया, ज़रा पता तो चले, नंगे तो सब हैं, नंगई भी खूब हो रही है लेकिन अब किसने की है ताज़ा-ताज़ा.
वैसे ऐसा कम ही देखने को मिलता है कि लिखने वाले का प्रोफ़ाइल लेख से पाँच गुना बड़ा हो.

Pankaj Parashar ने कहा…

मित्रो, कल मेरे पास वक्त कम था. इस पूरे प्रसंग पर आज विस्तार से लिखूंगा. धैर्य रखिये आदिविद्रोही जी, मैं अगर डरने वालों में से होता तो शायद छद्म नाम अपनाता.

सुभाष मौर्य ने कहा…

पंकज भाई,
मोहल्‍ले पर कर्मेंदु शिशिर की चिट्ठी छपने के बाद भी कुछ कहने के लिये बाकी रह गया है क्‍या। बेहतर होता आप ही इसे छापते तो टिप्‍पणी लिखने की जरूरत ही नहीं रहती