मंगलवार, जून 12, 2007

वो शाम कुछ अजीब थी ये शाम भी अजीब है

दिल्ली में गर्मी के मारे लोगों का बुरा हाल है...इनसान बाहरी और भीतरी दोनों तपिश से इस कदर परेशान है कि तरावट पाने की उसकी सारी कोशिशें बेकार चली जाती हैं. पानी कुछ पल तक तो गले को तर कर देता है लेकिन आंखों का जो पानी सूख गया है उसको कैसे तर करोगे मेरे भाई? रहीम ने कहा था आवत हिय हरषै नहीं नैनन नहीं सनेह...तो साहब नैनन में सनेह का जो पानी हुआ करता था वह कहां चला गया? हम क्यों नहीं बचा पाते हैं उस पानी को? मुझे लगता है गर्मी का एक यह भी कारण हो सकता है.

जे.एन.यू. के मेरे वे मित्र जो आज आई.ए.एस. हैं, बड़े अधिकारी हैं और ज्यादातर वातानुकूलित कक्ष से निकलने वाले लोगों की जमात में वे पाए जाते हैं उन्हें शायद याद हो कि जे.एन.यू. की पहाड़ियों से निकलती तपिश हालांकि दिल्ली की गर्मी से दो-तीन डिग्री ज्यादा ही हुआ करती थी लेकिन बावजूद इसके गंगा ढाबा के पास गर्म पत्थर पर बैठकर आहिस्ते-आहिस्ते गहराती हुई वह शाम जो हमारी जिंदगी में शबो-रोज आया करती थी वह पता नहीं अब याद हो कि न याद हो. नैनन में सनेह का आलम यह था कि अगर कोई मित्र बीमार हो जाए तो तीमारदारों की लाइन लगी रहती थी...पैसा हो या न हो...मेस बिल, दवा-दारु किसी चीज की चिंता करने की कोई जरूरत नहीं. आज सबकी अपनी अलग-अलग दुनिया है और एक ही दुनिया की अलग-अलग दुनियाओं में हम इस गर्मी में ठंडी हवा की एक छुअन को भी तरस-तरस जा रहे हैं.
हम अखिलेश की कहानी चिट्ठी के नायकों की तरह सुखी होने बाद एक-दूसरे को चिट्ठी लिखकर सूचना नहीं दे पाए हैं कि हम वाकई आज सुखी(!) हो गए हैं और अपनी-अपनी दुनिया में वही तरावट ढूंढ़ रहे हैं.

शाम आज भी हमारे जीवन में आती है लेकिन वो गर्म पत्थर और वो बातें हमारे जीवन में नहीं रह गई हैं, व्यावहारिकता का तकाजा भी शायद यही है कि सब दिन वह सब कुछ हमारे जीवन में रह भी नहीं सकता था. लेकिन जो मन है हमारे पास वह तो वही रह ही सकता था? वह नहीं रख सके हम बचाकर और गर्मी से परेशान हैं. सीने में जलन और आंखों में तूफान-सा जो कुछ दिखाई दे जाता वह एक शायर की हैरानी को बहुत अधिक बढ़ाता है... इस शहर में हर शख्स परेशान-सा क्यों है के रुप में.अब कौन दे इसका जवाब जनाब शहरयार साहब को जो खुद इन दिनों अलीगढ़ ही गर्मी से बेहद परेशान से चल रहे हैं.गर्मियां तो यूं ही आती-जाती रहेंगी लेकिन चाकरी के अपनी व्यस्ततम समय में भी क्या हम अपने नैनन के सनेह को बचा नहीं सकते? इस वक्त जो शामें हमारी जिंदगी में आती हैं हम उसे तो कम-अज-कम अजीब होने से तो बचा ही सकते हैं!

2 टिप्‍पणियां:

अफ़लातून ने कहा…

और इसके लिए सब से ज्यादा मुनासिब जगह वही है , शायद ?

Jitendra Chaudhary ने कहा…

प्रिय मित्र,
आपने अपने ब्लॉग का जो फीड नारद को दिया है
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वो काम नही कर रहा है, इसके चक्कर मे बाकी के ब्लॉग प्रभावित हो रहे है। इसलिए अस्थाई रुप से आपका ब्लॉग नारद के एग्रीगेशन वाली लिस्ट से अलग किया जा रहा है। ध्यान रखिए, आपका ब्लॉग नारद से नही हटाया जा रहा, बस तकनीकी रुप से नारद आपके ब्लॉग तक नही पहुँच पा रहा है, इसलिए उस लिस्ट से आपको अलग किया जा रहा है।

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