गुरुवार, जून 12, 2008

मेरा जाना भारत के विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी भी नहीं रोक सकते











दिल्ली-लाहौर-लाहौर बस सेवा के लिए शायद भारत और पाकिस्तान दोनों देश की सरकारों ने पिपली, सरहिंद और करतारपुर में जलपान और भोजन के लिए बस का ठहराव तय किया है। बेहद दुखी करनेवाली बात यह है कि दोनों देशों की सरकारों की नजर में बस से जानेवाली गरीब जनता की क्या इज्जत है वह इन स्थानों पर मिलनेवाले भोजन की गुणवत्ता से ही साफ समझ में आ जाता है। नकचढ़े शरीफों के जुमलों को उधार लेकर कहूं तो इतना घटिया खाना होता है कि बस मुझसे एक निवाला तक न निगला गया. बस के ड्राइवरों (ड्राइवर दो होते हैं) और सर्विस ब्याय के लिए इन होटलों के मालिक भोजन की व्यवस्था अलग केबिन में करते हैं। उस पर तुर्रा ये कि बस जहां भी रुकती है, वहां बस को चारों ओर से पुलिस के जवान घेर लेते हैं। यानी बस में चढ़ने के बाद बेहद संगीन जुर्म में गिरफ्तार कैदियों जैसी हालत हो जाती है यात्रियों की। वे न अपनी मर्जी का कुछ खा सकते हैं, न अपने घर का खाना, पानी, बिस्किट आदि बस के अंदर ले जा सकते हैं। मतलब ये कि आपको बस रूपी जेल में जो कुछ दिया जाएगा, वही खाने को अभिशप्त होंगे और तथाकथित सुरक्षा के नाम पर अगर आप की मुट्ठी बंधी हो, अगर आप बस में झुककर बैठे हों तो पंजाब पुलिस के बदतमीज पुलिसवाले मिनट-मिनट पर इस तरह आपकी जांच करेंगे मानो आप किसी आतंकवादी संगठन के कारकून हों, या बेहद खतरनाक आतंकवादी योजना बना रहे हों। इस रवैये की वजह से मेरे साथ बैठे एक पाकिस्तानी जैंटलमैन तो भड़क ही गए थे। मैंने किसी तरह उन्हें शांत किया, तब जाकर उनका गुस्सा शांत हुआ। जब तक भारत की सीमा से पाकिस्तान में प्रवेश नहीं कर गया तब तक अपने वतन में ही कैदी बने रहे, सुरक्षा के नाम पर बदतमीजियां सहते रहे और एक बार फिर लगा कि पाकिस्तान जाने का मेरा फैसला सही नहीं था।

अटारी बोर्डर पर पहुंचते बस रूकी. यहां कस्टम चैकिंग, वीजा-पासपोर्ट चैकिंग वगैरह के लिए रूकना था। भारतीय रूपये को पाकिस्तानी रुपये में एक्सचेंज करवाना था। यहां कई काउंटर्स बने हुए थे। सबको एक-एक फार्म दिया गया, जिसमें तमाम निजी जानकारियां भरकर संबंधित अधिकारी को देनी थी। फार्म देते समय फिर वही सवाल कि आप क्यों पाकिस्तान जा रहे हैं? बार-बार दिये जानेवाले जबाव को एक बार फिर मैंने दोहरा दिया कि यूं ही। तुरंत उस अधिकारी ने कहा कि नहीं आप नहीं जा सकते। मैंने पूछा क्यों? तो मेरे क्यों के जवाब में उसने फिर अपना जवाब एक बार दोहरा दिया। तब मैंने बेहद गुस्से में कहा कि मेरा जाना भारत के विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी भी नहीं रोक सकते, तुम किस खेत की मूली हो? बताओ मुझे किसके आर्डर से तुम मुझे जाने से रोक सकते हो? तब फार्म चैक कर रहे दूसरे अधिकारी मेरे प्रोफेशनवाले कालम में जर्नलिस्ट देखकर कहा कि छोड़िये, जनाब इनकी बातों को। आप जाइये। बहरहाल मेरे उलझने का तात्कालिक असर यह हुआ कि बिना कोई कठिनाई पैदा किये उन्होंने क्लीयरेंस दे दिया। फिर मैंने भारतीय स्टेट बैंक के काउंटर से मुद्रा चैंज करवाया। जिसमें मुझे एक्सचैंज रेट की सही सूचना न होने के कारण तकरीबन हजार रूपये का चूना लगाया। बस भारत से बाहर निकली और नो मैंस लैंड पर गई तो मैंने देखा लोगों और पत्रकारों की भारी भीड़ है। वजह जानने की कोशिश की तो पता चला पाकिस्तान सौहार्द दिखाते हुए ९६ भारतीय मछुआरों को रिहा कर रहा था। भीड़ वहां उन्हीं मछुआरों की थी और इसी को कवर करने के लिए तमाम पत्रकार इकट्ठे थे। पाकिस्तान पहुंचकर पता चला कि बदले में सौहार्द दिखाते हुए भारत ने सिर्फ १२ पाकिस्तानी मछुआरों को रिहा किया और कोढ़ में खाज यह कि पांच पाकिस्तानियों को जिंदा नहीं, उनकी लाशें पाकिस्तानी अधिकारियों को सौंपी. वापस पहुंचकर पता चला कि यह खबर भारत में प्रसारित नहीं हुई।


(जारी....)

1 टिप्पणी:

विनीत उत्पल ने कहा…

pol khol kar rakh diya aapne. aapke jise do char log pak se bharat aur bharat se pak chale jayen to dono mulkon ke sambandho par rajneetee karne vale kahee munh dikhane ke kabil nahee rahenge.