मंगलवार, नवंबर 24, 2009

सोचा है नत हो बार-बार


आजकल सचिन तेंदुलकर को लेकर जो घमासान शिव सेना ने मचा रखा है और जो बात इनसे उभर कर आ रही है वो है कि राजनीति से इतर किसी और क्षेत्र में शिखर छूने वाले किसी व्यक्ति कि देशभक्ति या अपने समाज के प्रति निष्ठा को आँकने का पैमाना क्या होना चाहिए. इसी सन्दर्भ में मुझे अमेरिका के महान मुक्केबाज मुहम्मद अली के अदम्य साहस और राजनैतिक धार्मिक निष्ठा का एक नायाब उदाहरण याद आता है जब उन्होंने विएतनाम युद्ध के चरमोत्कर्ष पर अमेरिका में प्रचलित अनिवार्य सैनिक तैनाती को चुनौती देते हुए विएतनाम जाकर लड़ने से मना कर दिया था. सजा के तौर पर इस विश्व चैंपियन से उसकी उपाधि छीन ली गई। पांच वर्ष कि सजा सुनाई गई और अमेरिका में रहते हुए अमेरिकी नीतियों के प्रति निष्ठा पर सवाल खड़े किये गए. इन सब अपमानों से विचलित हुए बिना मुहम्मद अली ने अमेरिकी सेना की नीतियों की जम कर आलोचना की. उन्होंने इस फैसले को क़ानूनी तौर पर चुनौती दी और न्यायलय ने उनके पक्ष में फैसला दिया. दो सौ से ज्यादा कॉलेजों और विश्वविद्यालय कैंपस में उन्होंने जा-जा कर नौजवानों के सामने व्याख्यान दिए. कहा जाता है की तीन सालों तक वे मुक्केबाजी के ख़िताब के लिए रिंग में नहीं उतर सके,एक करोड़ डालर से ज्यादा की राशि से हाथ धोया पर अपने फैसले से डिगे नहीं. आज अमेरिका के इराक और अफगानिस्तान युद्ध की पृष्ठभूमि में मुहम्मद अली के इस फैसले को देखा जाए, तो उनके साहस से अकूत बल मिलेगा.1999 में छपी माइक मर्कुसी की किताब से उनका एक वक्तव्य उधृत कर रहा हूँ.

"मैं वियतनाम जाकर उसके खिलाफ लड़ने वाला बिलकुल नहीं हूँ. वे(सेना) मेरे पास आकर क्यों कहें की मैं वर्दी पहन लूँ और अपनी धरती से दस हजार मील दूर जाकर उनपर बम गिराऊं और विएतनाम के भूरे लोगों पर गोलियां बरसाऊं जब कि यही हमारे देश में कथित नीग्रो लोगो के साथ कुत्तों जैसा बर्ताव किया जाता है. अब समय आ गया है जब ये सब बंद किया जाना चाहिए. मुझे बार-बार चेताया गया कि मेरे सेना की अनिवार्य तैनाती से मना करने के फैसले से करोडों डालर का नुकसान उठाना पड़ेगा.पर पहले भी अपनी बात मैंने साफ-साफ कही है और अब भी बार-बार ये दोहराता रहूँगा. मेरे अपने लोगों के दुश्मन कहीं बाहर नहीं इसी मुल्क में रहते है. मै महज एक कठपुतली या औजार बनकर अपने धर्म (इस्लाम) को अपमानित नहीं करूँगा, न ही अपने लोगो को और न खुद को ही कि उन्हीं लोगों को गुलाम बनाने में मदद करूँ, जो अपने लिए न्याय,आजादी और बराबरी कि लड़ाई लड़ रहे हैं.यदि मुझे लगेगा कि विएतनाम युद्ध हमारे २.२ करोड़ लोगो के लिए आजादी और बराबरी कि सौगात लेकर आएगा, तो उन्हें मुझे फ़ौज में ड्राफ्ट करने कि जरुरत नहीं पड़ेगी.मैं खुद जाकर कल ही अपनी सैनिक तैनाती सुनिश्चित कर लूँगा. अपनी मान्यताओं पर दृढ़तापूर्वक खड़े होने से मेरे कुछ खोने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता. जरुरत पड़ी तो मैं जेल जाने को तैयार हूँ-हम तो पिछले चार सौ सालों से जेल में सड़ रहे हैं. मुझसे उम्मीद कि जाती है कि देश से बाहर जाऊँ और दक्षिण विएतनाम की आजादी में मदद करूँ. पर विडंबना ये है कि इस देश के अन्दर हमारे लोगो पर ही बर्बर अत्याचार ढाए जा रहे हैं. नारकीय अत्याचार...आपमें से जो भी ये सोचता है कि मैं बहुत आर्थिक नुकसान के दौर से गुजर रहा हूँ, उन सब से मैं ये कहना चाहता हूँ कि मुझे सब कुछ हासिल हो गया ...मेरे पास है मन की शांति, निर्विकार, स्वच्छ और आजाद अन्तःकरण और सबसे बड़ी बात कि मेरा मन गर्व से ओत-प्रोत है. मैं खुश होकर सुबह बिस्तर से उठता हूँ,रात में ख़ुशी-ख़ुशी सोने जाता हूँ...और यदि मुझे जेल जाना पड़ा तो उतनी ही ख़ुशी के साथ मैं जेल चला जाऊंगा."


मुहम्मद अली की बेटी हाना अली ने अपने पिता के ऊपर एक किताब लिखी है-मोर देन अ हीरो:मुहम्मद अलिस लाइफ लेस्सोन्स प्रेजेंटेंड थ्रू हिज दोटेर्स आईस. इसमें एक जगह उसने लिखा है कि अपने पिता को उसने केवल दो बार मुक्केबाजी के रिंग में क्रोध से आग-बबूला होते हुए देखा. विएतनाम युद्ध के बाद अपना पक्ष रखने के कारण सजा भुगतने के बाद जब अली जोए फ़्रज़िएर से लड़ने आए तो सैनिक तैनाती में विएतनाम जाकर लौटे फ़्रज़िएर को वे बार-बार अंकल टॉम कहने लगे और उसपर उन्मादी की तरह आक्रमण करने लगे, पर बाद में जब उनको उस मैच की फिल्म दिखाई गई और उसमें उन्होंने देखा कि फ़्रज़िएर के बच्चों को इस मैच के कारण कैसे-कैसे ताने सुनने पड़े तो मुहम्मद अली की ऑंखें भर आईं.

प्रस्तुति और आलेख- यादवेन्द्र

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