कठिन है रहगुज़र थोड़ी दूर साथ चलो/बहुत बड़ा है सफ़र थोड़ी दूर साथ चलो/तमाम उम्र कहाँ कोई साथ देता है/मैं जानता हूँ मगर थोड़ी दूर साथ चलो
सोमवार, नवंबर 23, 2009
चुप रहने में कितनी समझदारी है
सोचा था ख्वाब का दर पर कविता, कहानी, साहित्य आदि से संबंधित सामग्री ही दूंगा और कोशिश रहेगी कि इन्हीं चीजों पर आधारित ब्लाग के रूप में इस ब्लाग को याद किया जाए। मगर जब देश की राजनीति शातिर ढंग से चीजों को गड्ड-मड्ड करने और कथित निश्छलता से देश की जनता के सामने सच नहीं आने देने के प्रति एकजुट हो, तब चुप रहना और कविता-कहानी करते रहना मुझे बेमानी ही नहीं, लगभग अश्लील लगता है। कहना न होगा कि इवान क्लीमा और अरुंधति राय जैसी शख्सियत को इसी चीज ने गल्प की दुनिया से सीधे हस्तक्षेप की दुनिया में आने और झूठ को बेनकाब करने के लिए उत्प्रेरित किया होगा।
लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट को लेकर बन रही खबर से खेलने में मस्त इलेक्ट्रानिक मीडिया गन्ना किसानों के मुद्दे पर बनी विपक्ष की एकजुटता भूल गई या किसी ने उसे भूल जाने को कहा? या इस भूलने की बड़ी कीमत अदा की गई? रघुवीर सहाय ने ऐसे ही नहीं लिखा था-लोग भूल गए हैं। हम भूलने में इतने माहिर हैं कि बहुत जल्दी चीजों को भूल जाते हैं।
जब चीनी की कीमतें आसमान छू रही हों, तब एक क्विंटल तैयार गन्ने की कीमत सौ डेढ़ सौ रूपये होनी चाहिए? जब आलू बाजार में बीस-पच्चीस रूपये किलो मिल रहा हो तब किसानों को महज एक-दो रूपये कीमत देना जायज है? यकीन न हो तो दिल्ली के आजादपुर सब्जी मंडी द्वारा जारी सब्जियों की थोक कीमत देखें और अंदाजा लगाएं कि किसानों को किस दर पर अपनी फसल बेचकर लौटना पड़ा होगा। मैं जानता हूं कि एक क्विंटल गन्ना के उत्पादन में किसानों का कितना श्रम और धन लगता है। मगर यह मुद्दा चला गया पीछे। क्योंकि किसानों के लिए चैंबर आफ कामर्स या एसोचैम जैसा कोई प्रेशर ग्रुप नहीं है। वह चुनाव में वोट तो दे सकता है लेकिन चुनाव लड़ने के लिए नोटों की गड्डी नहीं दे सकता। सरकार को बना-बिगाड़ नहीं सकता। मगर रतन टाटा या अंबानी बंधु सरकार को गिरा भले न पाएं पर जब तब हिलाते तो रहते हैं। कभी सिंगूर तो कभी साणंद के बहाने सरकारों पर सीधे हमला करते ही रहते हैं। खैर...
जब संचार मंत्री डी राजा के बारे में यह खबर आने लगी कि वे महा स्पेक्ट्रम घोटाले में शामिल हैं तो गेंद तत्काल प्रणव मुखर्जी के पाले में देकर जिन्न को मधु कोड़ा के पीछे लगा दिया गया. क्या कांग्रेस समर्थित कोड़ा बगैर कांग्रेस और राजद के समर्थन के एक दिन भी सत्ता में बने रह सकते थे? क्या इन बड़े लीडरान को इन चीजों की जानकारी नहीं रही होगी? राजनीति को जरा भी अंदर से जानने वाले लोग इस चीज पर यकीन नहीं करेंगे कि कांग्रेस और लालू प्रसाद की राजद जैसी पार्टी को कोड़ा की करतूतों का पहले से अंदाजा बिल्कुल नहीं रहा होगा? लेकिन कोड़ा की करतूतों का खुलासा ऐसे वक्त पर किया गया जब सरदार मनमोहन सिंह अपनी दूसरी पारी की सरकार में महा घोटाले में संलिप्त संदिग्ध संचार मंत्री के बारे में घोटाले की खबर सुन रहे थे। अजीब संयोग यह है कि मीडिया को आज इस खबर के फॉलो अप की कोई जरूरत महसूस नहीं होती। हो भी क्यों क्योंकि विज्ञापनदाता समाज से भला वैर कौन मोल ले? आखिरकार दो रूपल्ली में अखबार पढ़ने वाले पाठकों के भरोसे तो अखबार नहीं चलता, न सौ डेढ़ सौ केबल वाले को देकर घर सौ डेढ़ सौ चैनल देखने दर्शकों के भरोसे न्यूज चैनल। न ये टीआरपी दिलाऊ हैं न विज्ञापन दिलाऊ.
दूसरी ओर लगता है अब महंगाई जैसे कोई मुद्दा ही नहीं रहा। इस पर बात करना भी मानो भयंकर पिछड़ेपन की निशानी बन गया है। सेठ, सरकार और दलाल मालामाल हो रहे हैं। खबर है कि मीडिया को फिलवक्त विज्ञापनों को कोई टोटा नहीं है। मगर मीडिया में काम करने वाले हम जैसे लोग जानते हैं कि दूसरों की खबर लिखने वाले हम लोग स्वयं कम बड़ी खबर नहीं हैं। अनुबंध और बॉस की भृकुटियों पर निर्भर नौकरी में पल-पल जीता पत्रकार किन स्थितियों में जीता है यह जनता को शायद मालूम नहीं हो, पर लिब्रहान जैसे मुद्दे पर नेताओं को घेरने वाली मीडिया के नीति-नियंताओं को सब पता है। अच्छी तरह पता है। लेकिन जिनको मालूम है वे अपनी रोटी सुरक्षित देखकर चुनी हुई चुप्पी में अपनी भलाई समझते हैं। हैरत होती है कि बहुतेरे लोग चुप हैं। चुपचाप सब देख रहे हैं। चुपचाप सारा खेल चल रहा है। हमारे देश के भद्रजन जानते हैं कि चुप रहने में कितनी समझदारी है।
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4 टिप्पणियां:
"जब देश की राजनीति शातिर ढंग से चीजों को गड्ड-मड्ड करने और कथित निश्छलता से देश की जनता के सामने सच नहीं आने देने के प्रति एकजुट हो, तब चुप रहना और कविता-कहानी करते रहना मुझे बेमानी ही नहीं, लगभग अश्लील लगता है।"
मित्र हिन्दी साहित्य का संसार इन सवालों से टकराते हुए अपनी भूमिका को विश्वसनीय क्यों नहीं बना पा रहा है या, उतने विश्वसनीय ढंग से क्यों नहीं उठा पा रहा है (?) आपकी बातें ऎसे कई सवाल छेड़ रही है। ये जरूरी बातं हैं, तरूरी है कि समकालीन रचनाओं की आलोचना ऎसे सवालों के दायरे में की ही जाए। मुझे लगता है फ़िर सजगता से भरा रचनात्मक कदम शायद अश्लील न लगे।
बढ़िया आलेख ! आपने सच कहा, "मीडिया को आज इस खबर के फॉलो अप की कोई जरूरत महसूस नहीं होती|"
जब नेता और जनता दोनों की यादाश्त कमज़ोर हो तो मीडिया कब तक याद रखे बातो को ?
बढ़िया विचारणीय उम्दा आलेख...
हिंदी साहित्य का इतिहास इस बात का गवाह है कि वह यहां सिर्फ़ कला के लिए कला की धारणा कभी प्रतिष्ठित नहीं रही है. इसलिए इसे साहित्य से अलग मानने का सवाल ही नहीं उठता. ख़ास कर ऐसे समय में जबकि मीडिया सिर्फ़ मुनाफ़े के सौदे में व्यस्त हो, यह ज़िम्मेदारी साहित्य को ही उठानी होगी.
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