मंगलवार, अक्टूबर 20, 2009

क्या सोचते हैं पाकिस्तानी युवा?


पाकिस्तान का नाम सुनते ही आम भारतीय के दिमाग में मुंबई हमले में पकड़े गए एकमात्र जीवित आतंकवादी अजमल अमीन कसाब का चेहरा आता है या जम्मू-कश्मीर में प्रतिदिन सुरक्षा-बलों के साथ मुठभेड़ में मारे जाने वाले आतंकवादियों का। दुर्भाग्य से पाकिस्तान हमेशा गलत कारणों से अंतरराष्ट्रीय मीडिया में छाया रहता है। जबकि आतंकवाद और कानून-व्यवस्था से अलग पाकिस्तान की जो समस्याएं हैं, उस पर चर्चा कम होती है। हाल में आई पाकिस्तानी फिल्म खुदा के लिए में जेहादियों, मदरसा वालों और कट्टर धार्मिक संगठनों में शिक्षित लोगों से अलग आम पाकिस्तानी युवाओं की क्या सोच है, यह दिखाने की कोशिश की गई है। अपनी सोच, रहन-सहन, और आम व्यवहार में पाकिस्तानी मध्यवर्ग कैसा है, इसके बारे में एक सामान्य जानकारी इस फिल्म से मिलती है।
पाकिस्तानी राजनीतिज्ञों और आतंकवादी संगठनों के आकाओं का बयान अक्सर कट्टरतापूर्ण और भारत विरोधी होता है, इसलिए हमें लगता है कि ऐसा ही पूरा पाकिस्तानी समाज है और वहां के युवा वर्ग की यही सचाई है। जबकि हकीकत यह है कि अंग्रेजी माध्यम से शिक्षित लोग काफी हद तक उदार, खुले दिमाग और चीजों को निष्पक्षता और तटस्थता से देखने वाले हैं। पाकिस्तान की ब्यूरोक्रेसी, उच्च शिक्षा, राजनीति, मीडिया और व्यापार में ज्यादातर ऐसे लोगों का दखल है। वहां की किसी भी नामचीन शिक्षण संस्थान में छात्राएं और अध्यापिकाएं बुर्के में नहीं रहती हैं। अफगानिस्तान से लगी सीमाओं और जनजाति बहुल इलाके फाटा को यदि छोड़ दिया जाए, तो पाकिस्तान में नकाब पहनने की प्रथा लगभग नहीं है। यहां तक कि आधी रात को भी ग्वाल मंडी (जो अब फूड स्ट्रीट के नाम से जाना जाता है) में अकेली औरतों को, रोमांटिक मुद्रा में खाना खाती नई दुल्हनों या प्रेमी-प्रेमिकाओं के जोड़ों को आसानी से देखा जा सकता है।
हिंदी फिल्मों का यहां के युवाओं पर इतना अधिक असर है कि वे जो भी नया हेयर स्टाइल देखते हैं, नया ड्रेस देखते हैं, तो वैसा ही दिखने का जुनून सवार हो जाता है। लाहौर के सबसे प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थान गवर्नमेंट कालेज के कुछ छात्रों ने शिकायती लहजे में मुझसे पूछा कि जनाब, ये बताएं कि आपके यहां पाकिस्तान को लेकर फिल्में बनती हैं, उसमें एक्ट्रेस हमेशा पाकिस्तान की क्यों दिखाई जाती हैं? हिना, गदर सब में में ऐसा ही है। क्या ये महज इत्तफाक भर है या इसके पीछे कोई खेल है? यह जानना दिलचस्प होगा कि हिंदी फिल्मों की लोकप्रियता का पाकिस्तानी युवाओं पर इतना अधिक असर है कि वे संस्कृतनिष्ठ शब्द लोकप्रियता, आचरण, व्यवहार, परिश्रम, आनंद, पिता, निर्देशक इत्यादि धड़ल्ले से बोलते हैं। चूंकि पूरे पाकिस्तान में हिंदी फिल्में ही चलती हैं, इसलिए यदि मदरसा में शिक्षित फारसी के आग्रही विद्वानों को छोड़ दें, तो वहां की जनता की आम जुबान में फारसी के शब्द बहुत कम इस्तेमाल होते हैं।
पाकिस्तानी पंजाब की हृदयस्थली लाहौर में लाहौर यूनिवर्सिटी ऑफ मैनेजमेंट साइंसेज यानी लम्स की प्रतिष्ठा हमारे यहां के आई.आई.एम. की तरह है। यहां से पास हुए बच्चों को लाखों रुपये महीने की नौकरी आसानी से मिल जाती है। जिन छात्रों से मेरी बात हुई, उनके मन में भारत के प्रति विरोध और नफरत की जगह भारत देखने की हसरत दिखाई दी। वे भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था, खुलेपन, और उदारता से बेहद प्रभावित हैं। पाकिस्तान के आम युवाओं की शिकायत है कि भारत आर्थिक क्षेत्र में हमसे काफी आगे निकल गया और हम हैं कि आज तक भारत से मुकाबले की ही जुगत में सिर खपाते रहते हैं। सॉप्टवेयर, कंप्यूटर और अन्य तकनीकी क्षेत्रों में भारत की प्रगति से वहां के युवा बेहद प्रभावित हैं। वे खीजकर कहते हैं कि हमारे नेताओं ने तकसीम के बाद साठ साल का वक्त लड़ने-भिड़ने और हथियारों की खरीद-फरोख्त में बिता दिया, जबकि इंडिया हमसे हर मामले में आगे चला गया। हम भारत की चाहे लाख आलोचना करें, वहां कभी फौज सत्ता में नहीं आ सकती है। मगर हमारे यहां देखिए कि जम्हूरी निजाम से ज्यादा फौजी निजाम रहता है। लाहौर, कराची, इस्लामाबाद, पेशावर, फैसलाबाद, क्वेटा आदि शहरों में मीडिया, मेडिकल, इंजीनियरिंग, मैनेजमेंट आदि की पढ़ाई कर रहे शायद ही कोई ऐसा छात्र होगा, जो एक बार भारत न आना चाहता हो।
मुंबई को लेकर पाकिस्तानी युवाओं के मन में भी वही हसरत और आंखों में चमक दिखती है, जो किसी भी आम ग्रामीण और कस्बाई भारतीय युवा के मन में होती है। कराची के युवक हैरत से पूछते हैं कि क्या ऐसी ही है मुंबई? वहां तो आसानी से अमिताभ बच्चन, शाहरुख खान, दीपिका पादुकोण, विद्या बालन सड़कों पर दिख जाती होंगी? एक टीवी कार्यक्रम कैंपस-रंपस में शिरकत कर रहे सैकड़ों छात्रों ने साफगोई से कहा कि उनका धर्म-कर्म में कोई विश्वास नहीं है। उन्हें मस्जिद जाने या धार्मिक क्रिया-कलापों में शामिल होने की जरूरत महसूस नहीं होती। वे नहीं चाहते कि किसी फार्म वगैरह में धर्म के खाने में कुछ भरा जाए। यहां एक बार फिर यह याद करना मुनासिब होगा कि खुदा के लिए में नायक जब तक कट्टरपंथी मुल्ला के संपर्क में नहीं आता है, तब तक नमाज वगैरह नहीं पढ़ता है। वहां के मध्यवर्गीय लोगों की यही सचाई है। वैसे शुक्रवार को छोड़कर बाकी दिनों में नमाज पढ़ने वाले लोग वहां उस अनुपात में नहीं हैं, जिसकी हम यहां बैठकर कल्पना कर लेते हैं।
क्रिकेट के प्रशंसक युवाओं का कहना है कि जनाब जब भारत के साथ हमारी टीम खेलती है तो जाहिर है हम हर कीमत पर जीतना चाहते हैं, लेकिन जब किसी पश्चिमी देश के साथ मैच हो तो हम चाहते हैं कि मैच भारत जीते। सचिन और सहवाग सेंचुरी ठोंक कर ही पवेलियन लौटें। जश्न के मौकों पर पाकिस्तान के सिंध सूबे के युवा अपने हिंदू दोस्तों की चिरौरी करते हैं कि वे किसी तरह उन्हें शराब ख्ररीद कर ला दें, फिर वे चोरी-चोरी, चुपके-चुपके जश्न मनाते हैं। पाकिस्तान चूंकि एक इस्लामिक गणराज्य है इसलिए वहां कोई मुसलमान शराब नहीं खरीद सकता। मुसलमानों के लिए पाबंदी है। दुकानदार शराब खरीदने वाले के पहचान से संतुष्ट होने के बाद ही हिंदू, सिख या ईसाई को शराब बेचते हैं। वैसे वहां पंजाब राज्य में शराब के शौकीन पुलिस और लोगों से छिपाकर किसी तरह इसका जुगाड़ कर ही लेते हैं। लाहौर के अधिकांश युवा शराब के विरोधी हैं, लेकिन इस प्रकार के प्रतिबंध को वे उचित नहीं मानते। उनको लगता है कि प्रतिबंध की वजह से अंदर ही अंदर ये लत ज्यादा भयानक स्तर पर फैल रही है।
लाहौर मेडिकल एंड डेंटल कालेज में एम.बी.बी.एस. अंतिम वर्ष की छात्रा रुखसाना जमाल ने बताया कि इस सचाई से हम इनकार नहीं कर सकते कि शराब, व्यक्तिगत संबंध या अन्य मामलों में अधिक आजादी के बावजूद पश्चिमी देशों के युवा हमसे कहीं आगे हैं। अगर उतनी आजादी मुमकिन न हो, तो कम-से-कम इंडिया के बराबर तो होनी ही चाहिए। देख लीजिए कि जिस चीज का इलाज हम नहीं कर पाते हैं, उन मरीजों को हम भारत भेजते हैं। हम भारत में जाकर नौकरी करना चाहते हैं और मजा आए तो बस जाना चाहते हैं। मगर हम अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस या कनाडा में जाकर तो नौकरी कर सकते हैं, बस सकते हैं मगर भारत जाकर न नौकरी कर सकते हैं, न बसने की सोच सकते हैं। क्या यह कभी मुमकिन हो सकेगा?

3 टिप्‍पणियां:

दिगम्बर नासवा ने कहा…

काश आपने जो लिखा सच होता ...........

Unknown ने कहा…

बहुत ही अच्छा जानकारीपूर्ण लेख!

वास्तव में आम लोग, चाहे वे किसी भी देश के क्यों न हों, अच्छे विचार वाले ही होते हैं।

डॉ .अनुराग ने कहा…

पंकज मैंने इस फिल्म की बहुत चर्चा सुनी ओर पढ़ी है .दुर्भाग्य से ऐसे देख नहीं पाया अब तक... ऐसी सोच वहां के युवा रखते जानकर अच्छा लगता है पर उनकी परसेंटेज भी कम है ओर शायद आवाज अनसुनी कर दी जाती है ...पर जानकर अच्छा लगा