बुधवार, जून 04, 2008

मैंने लाहौर देखा और इस दुनिया में पैदा भी हुआ




जिन लाहौर नहीं वेख्या ओ जम्या ही नई


दोस्तो,

पाकिस्तान का वीजा जब मुझे मिला तो हिंदुस्तान और पाकिस्तान दोनों देश के दोस्तों को एक आश्चर्यमिश्रित खुशी हुई। आश्चर्य की वजह ये कि दोनों देशों के बीच लिखित रूप से जितनी दीवारें खींची गई हैं उससे ज्यादा अलिखित कानूनी दीवार हैं। बिना कारण बताये जितना कुछ होता है, जितने फैसले किये जाते हैं, उससे कम फैसले लिखित कानून और जरूरी कारण बताकर किये जाते हैं।


लाहौर के अनारकली बाजार में घूमते हुए ऐसा लगा जैसे दिल्ली के चांदनी चौक, चावड़ी बाजार, बाजार सीताराम या कह लें हिंदुस्तान के किसी भी शहर के पुराने व्यस्ततम बाजार में घूम रहे हैं। वही बोली, वही भाषा, वही खान-पान की आदतें, हर चीज वही...नई बस ये कि लाहौर से सिर्फ बीस किलोमीटर दूर शहर अमृतसर हिंदुस्तान हो जाता है...एक अलग मुल्क...कथित रूप से अंतरराष्ट्रीय...जहां तक पहुंचने के लिए पासपोर्ट, वीजा, पचास डालर या इसके बराबर रुपये, जाने की यकीनी वजह और दोनों मुल्कों की ब्यूरोक्रेसी को मुतमइन करने लायक सवालों के जवाब और असीम धैर्य चाहिए. सरहद बना दी गई है, कांटेदार बाड़ लग गए हैं...लोग एक-दूसरे के यहां आ-जा नहीं सकते...कथित रूप से वे मेरे दुश्मन हैं और हम उनके दुश्मन हैं...सभ्य हुए, संस्कारवान हुए और इतने हुए करीब कि हम दूर हो गए।

(जारी...)

4 टिप्‍पणियां:

chavannichap ने कहा…

khoob ja kar likhen.badhai aur shubhkaamnaayen...

Udan Tashtari ने कहा…

इन्तजार रहेगा आपके यात्रा वृतांत का. शुभकामनाऐं.

दीपान्शु गोयल ने कहा…

लाहौर देखने की इच्छा तो मेरी भी है पता नहीं कब पूरी होगी। आप भारत की संस्कृति के छूटे हिस्से को देख पाये हैं इसके लिए बधाई।

Sanjeet Tripathi ने कहा…

आज ही अखबार मे आपका लेख देखा कि लेखक पाकिस्तान दौरे पर हैं।
शुभकामनाएं