बुधवार, फ़रवरी 28, 2007

भोपाल की पटिया संस्कृति


नवाबी तहज़ीब से पहचाने जाने वाले शहर भोपाल में सड़कों और गलियों के किनारे पत्थर और सीमेंट की बनी पटियों ने यहाँ के राजनीतिक और सांस्कृतिक जीवन में एक अहम भूमिका निभाई है लेकिन पटिया की यह तहज़ीब अब धीरे धीरे समाप्त हो रही है. तेज़ी से फैलते लेकिन तंग होते भोपाल के बीच अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ते पुराने शहर में शाम होते ही चंद महफ़िलें आज भी सजती हैं.
पतली सड़कों और सकरी गलियों के किनारे लगे पत्थरों या फिर सीमेंट की स्लैब पर पुरानी दरियाँ, चाँदनी या फटी हुई कालीनें बिछ जाती हैं और शुरु हो जाते हैं शतरंज, साँप-सीढ़ी, कैरम बोर्ड या चाय की गर्म प्यालियों के साथ गपशप के दौर.
पटरियों पर बिछाने को कुछ न भी मिले तो कोई ग़म नहीं.
पुरानी यादें
इकबाल मैदान का नुक्कड़ हो या चौक के पास सर्राफा बाज़ार की बैठकें या जहाँशीराबाद के जमावड़े – सब देर रात तक गुलज़ार रहते हैं. रातगुज़ारी के साथ साथ एक तहज़ीब को ज़िदा रखे हुए.
सदर मंज़िल की सीढ़ियों के किनारे लगे पटिए पर शतराज की बिसात बिछाए जावेद अनवर कहते हैं कि वो बचपन से ही बैठकें लगा रहे है. और यहाँ एक ज़माने में मज़दूर वामपंथी नेता शाकिर अली खाँ और भारत के पूर्व राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा जैसे सरीखे लोग भी आते थे.
जावेद अनवर की उम्र 70 के आस पास की होगी.
आटोमोबाइल इंजीनियर रिज़वानुदीन अंसारी को तो पटियों की याद यूरोप में अपनी पढ़ाई के दिनों में भी आई.
भोपालियों को पटियों से लगाव शायद इसलिए भी है कि सैकड़ों सालों से शहर में इन पर होने वाली बैठकें बीते वक्त के साथ यहाँ की ज़िन्दगी का एक अहम हिस्सा बन गई.
बेरोज़गारी भी वजह
भोपाल में पटिया संस्कृति की शुरुआत की बात करते हुए साहित्यकार अफ़ाक़ अहमद कहते है, “भोपाल में उस ज़माने में क़बाईली इलाकों में प्रचलित छोटे छोटे मक़ान होते थे. अमीरों के घर में तो मर्दानखाने और जनानखाने होते थे लेकिन आम लोगों के घर में आज जिसे ड्राइंग रुम कहते है का कोई था फिर पर्दा प्रथा भी काफी सख़्त था तो मर्दों ने अपनी बैठकों के लिए घर के बाहर पटिये डालने शुरु कर दिए."

अब लोगों की रुचि कम होती जा रही है पटिया संस्कृति में
उर्दू साहित्य से जुड़े और भोपाल की संस्कृति पर शोध पर चुके अज़ीज़ अंसारी का कहना है कि रियासत के आख़िरी नवाब हमीदुल्लाह खाँ के ज़माने में तो यह फले फूले.
उनके अनुसार नवाब साहब जब अलीगढ़ से अपनी शिक्षा पूरी कर भोपाल वापस आए तो अपने दोस्त यारों को भी साथ लेते आए और उन्हें रियासत के आला ओहदों पर नौकरी दे दी.
इन लोगों ने बाहर से अपने रिश्तेदारों को बुलाकर यहाँ नौकरियों में भरना शुरु कर दिया. ज़ाहिर है कि भोपालनिवासियों के लिए नौकरियाँ कम होती गई तो उनके पास गप्पे मारने और महफ़िले सजाने के अलावा चारा क्या था.
इस स्थिति में पहाड़ी क्षेत्र में बसे गर्म मौसम वाले भोपाल में पत्थर की इन पटियों ने मेहमानखाने की शक्ल अख्तयार कर ली – एक तरह से ओपन एयर ड्रांइग रुम.
लेकिन साथ ही उसी संस्कृति को लिए हुए जो कोलकता के अड्डों, यूरोप के पुराने काफ़ी घरों या चीन के चायखानों में प्रचलित थी.
विशेषताओं वाले पटिए
अफ़ाक अहमद का कहना है कि कुछ पटिए तो विशेष व्यक्तियों या विचारधारा के नाम से भी जानी जाती थी.
वामपंथी नेता शाकिर अली खाँ एक पटिये पर राजनीतिक चर्चा छेड़ते थे और नवाबी दौर में ही नज्जन दादा का पटिया नवाबी हुकुमत के खात्मे के लिए होने वाली चर्चाओं के लिए मशहूर था

अफ़ाक अहमद
जहाँगीराबाद में एक होटल के सामने लगे पटिए पर साहित्यक लोग जमा होते थे.
वामपंथी नेता शाकिर अली खाँ एक पटिये पर राजनीतिक चर्चा छेड़ते थे और नवाबी दौर में ही नज्जन दादा का पटिया नवाबी हुकुमत के खात्मे के लिए होने वाली चर्चाओं के लिए मशहूर था.
अफ़ाक अहमद का कहना है कि नज्जन दादा को इसकी क़ीमत अपनी जान खोकर चुकानी पड़ी.
कहा जाता है कि भारत की आज़ादी के बाद भोपाल में ज़ोर शोर से चले विलय आंदोलन की रुपरेखाएँ और रणनीतियाँ इन्ही पर तैयार की गई थीं.
भारत के पूर्व राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने इसमें बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया और 1952 के आम चुनावों के बाद यहाँ के पहले मुख्यमंत्री बने.
नए राज्य की क़ीमत
1956 में भारत के मध्य में फँसे कई राज्यों को मिलाकर जब मध्य प्रदेश बना तो भोपाल उसकी राजधानी बनाई गई. उस समय शहर की आबादी मात्र 70 हज़ार थी. फिर शुरु हुआ बड़ी संख्या में लोगों का पलायन.
और चौड़ी सड़कों तथा नए तर्ज के मकानों की मांग की क़ीमत इन्हीं पत्थर के पटियों को चुकानी पड़ी थी.
लकड़ी के दरवाज़ों की जगह जो शहर वाली दुकानें बनने लगी तो दुकानों के आगे पटियों की जगह ही नहीं बची.
बाकी रही सही कमी पूरी कर दी नए दौर में ज़िंदगी की नई तर्ज़ ने.
दिल को पटिये जो अपने याद आएँकिसके पटियों पे दिल को बहलाएँमहफ़िले अब कहाँ जमें अपनीकैसे दाद-ए-सुख़नवरी पाएँ

नासिर कमाल की पैरोडी
अज़ीज़ अंसारी कहते हैं, "आज की व्यस्त ज़िदगी में लोगों की ज़िंदगी का दायरा इतना सीमित हो गया है, उलझने इस क़दर बढ़ गई हैं कि पटियों पर जाकर बैठने की अब फ़ुर्सत ही कहाँ है?शाम को अगर कुछ मनोरंजन चाहिए तो कल्ब, सिनेमा या होटलों में चले जाते है."
ज़ाहिर है यह पटियों की समाप्ति का दौर है. पत्रकार और शायर नासिर कमाल ने तो इसका मर्सिया भी लिख डाला है, एक पैरोडी की शक्ल में –
"दिल को पटिये जो अपने याद आएँकिसके पटियों पे दिल को बहलायेंमहफ़िले अब कहाँ जमे अपनीकैसे दादे सुखनवरी पायें"
मुस्तफ़ा अली ताज ने भी लिखा है कि वही पटिया संस्कृति है जिसका ज़िक्र गुलाबी उर्दू के जन्मदाता कहे जाने वाले मुल्ला रामूजी के लेखों और कहानियों का हिस्सा रही है.
नासिर कमाल शायद ठीक ही कहते हैं कि सैकड़ों साल से भोपाल की ज़िदगी का हिस्सा रहे यह पटिये शायद आगे भी इक्का दुक्का तादाद में बच जाएँ लेकिन उस तहज़ीब के बग़ैर जो इसने इस शहर को दी थी.


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