शुक्रवार, फ़रवरी 23, 2007

मुझे बचाना समंदर की ज़िम्मेदारी है

मैं क़तरा होकर भी तूफ़ाँ से जंग लेता हूँ
मुझे बचाना समंदर की ज़िम्मेदारी है.
दुआ करो कि सलामत रहे मेरी हिम्मत
यह इक चिराग़ कई आँधियों पे भारी है.
वसीम बरेलवी

मैंने पूछा था सबब, पेड़ के गिर जाने का
उठके माली ने कहा इसकी क़लम बाक़ी है
निदा फ़ाज़ली
कुछ रोज़ से हम सिर्फ़ यही सोच रहे हैं
अब हम को किसी बात का ग़म क्यों नहीं होता
शहरयार
मैं दुनिया के मेयार पे पूरा नहीं उतरा
दुनिया मेरे मेयार पे पूरी नहीं उतरी.
मैं झूठ के दरबार में सच बोल रहा हूँ,
हैरत है कि सर मेरा क़लम क्यों नहीं होता.
मुनव्वर राना
इक अमीर शख़्स ने हाथ जोड़ के पूछा एक ग़रीब से
कहीं नींद हो तो बता मुझे कहीं ख़्वाब हों तो उधार दे.
आग़ा सरोश

1 टिप्पणी:

उन्मुक्त ने कहा…

कवितायें तो बढ़िया हैं।