बुधवार, सितंबर 26, 2007

शिक्षा का कुचक्र क्या सरकार को नहीं दिख रहा है?


मैंने अपने गांव के जिस सरकारी स्कूले से पढ़ाई की, वहां पांचवीं तक अंगरेजी भाषा की ए.बी.सी.डी. हमें न तब पढ़ाई गई, न आज के बच्चों को भी पढ़ाई जाती है. छठीं जमात में जाने के बाद अचानक अंगरेजी एक विषय के रूप में हमारी पढ़ाई में शामिल हो गई. बस, अंगरेजी क्या आई कि अचानक हम इस विषय की पढ़ाई से जी चुराने लगे और धीरे-धीरे नकारा बच्चों के खिताब से हमें नवाजा जाने लगा. मैं जब हमें कह रहा हूं याद रखिये कि हम जैसे तमाम बच्चों की यही हालत थी.शायद ही कोई पास हो पाता था इस विषय में.परिणाम यह हुआ कि हमारे जैसे बच्चों की अंगरेजी कभी कान्वेंट एजुकेटेड बच्चों जैसी नहीं हो पाई.जबकि शहरी बच्चे बचपन से ही लगातार अंगरेजी पढ़ने के कारण हमसे अच्छे हो गए.बाकी विषयों में भले फिसड्डी रहे. बी.बी.सी. हिंदी में मेरे मित्र श्री राजेश प्रियदर्शी ने एक लेख लिखा है-वही सब मुद्दे इसमें शामिल हैं, जो बरसों से न केवल मैं सोच रहा था, बल्कि भुक्तभोगी भी हूं. पेश है बी.बी.सी. से साभार उनका वह लेख.



भारत में जो तेज़ रफ़्तार तरक्क़ी हो रही है उसका ज्यादातर श्रेय देश के शिक्षित मध्यवर्ग को जाता है, और जितनी समस्याएँ हैं उनका विश्लेषण करने पर हम अक्सर इसी नतीजे पर पहुँचते हैं कि जब तक लोग शिक्षित नहीं होंगे तब तक हालात नहीं बदलेंगे. सारा विकास दिल्ली, मुंबई, बंगलौर जैसे शहरों में हो रहा है जिसकी कमान थाम रखी है अँग्रेज़ीदाँ इंडिया ने, जबकि गोहाना, भागलपुर, नवादा, मुज़फ़्फ़रनगर में जो कुछ हो रहा है वह भारत की अशिक्षित जनता कर रही है जिसे शिक्षित बनाने की बहुत ज़रूरत है. इस तरह के निष्कर्ष तो सब बड़ी आसानी से निकाल लेते हैं. क्या सब कुछ इतना सीधा-सरल है? शिक्षा का कुचक्र क्या सरकार को, पढ़े-लिखे समझदार लोगों को नहीं दिख रहा है?



दिल्ली में बीए पास करने वाला युवक कॉल सेंटर की नौकरी पा सकता है, बलिया, गोरखपुर, जौनपुर या सिवान जैसी जगह से बीए पास करने वाले युवक को सिक्यूरिटी गार्ड क्यों बनना पड़ता है, इस सवाल का जवाब हम कितनी मासूमियत से टाल जाते हैं. जवाब मुख़्तसर है--अँगरेज़ी. अँगरेज़ी की जो पूँजी दिल्ली वाले युवक के पास है वह आरा-गोरखपुर वाले के पास नहीं है. इसका भी एक मासूम सा जवाब है कि 'तो अँगरेज़ी क्यों नहीं सीखते'? गाँव-क़स्बों के बिना छत वाली स्कूलों की तस्वीरें भी अब छपनी बंद हो गईं हैं कि असली तस्वीर आँख के सामने रहे. क्या किसी ने कभी पूछा है कि अँगरेज़ी मीडियम स्कूलों में नाम लिखाने की आर्थिक-सामाजिक शर्तें देश की कितनी आबादी पूरी कर सकती है? अगर नहीं कर सकती तो क्या सबको चमकदार मॉल्स के बाहर सिक्यूरिटी गार्ड बन जाना चाहिए और जो बच जाएँ उन्हें उग्र भीड़ में तब्दील हो जाने से गुरेज़ करना चाहिए.



भारत और इंडिया नाम के जो दो अलग-अलग समाज एक ही देश में बन गए हैं अँगरेज़ी उसकी जड़ में है. यह दरार पहले भी थी लेकिन उदारीकरण के बाद जो रोज़गार के अवसर पैदा हुए हैं उन्हें लगभग पूरी तरह हड़प करके अँगरेज़ी ने इस खाई को और चौड़ा कर दिया है.
मुझे लगता है कि प्राथमिक स्तर पर पूरे देश में अँगरेज़ी शिक्षा को अनिवार्य कर देने का समय आ गया है, इसके बिना देश की बहुसंख्यक वंचित आबादी के साथ कोई सामाजिक-आर्थिक न्याय नहीं हो सकता.
अगर हम व्यवस्था को नहीं बदल सकते तो कम से कम ग़ैर-बराबरी को ख़त्म करने का उपाय तो करें. जब साफ दिख रहा है कि अँगरेज़ी जानने वाले कुछ लाख लोगों की बदौलत महानगरों में इतनी समृद्धि आ रही है तो क़स्बों-गाँवों को अँगरेज़ी से दूर रखने का क्या मतलब है?
हिंदीभाषी समाज के लिए भाषा एक भावनात्मक मुद्दा रहा है. हिंदी को स्थापित करने के लिए अँग्रेज़ी के वर्चस्व को समाप्त करना होगा. यह मानते हुए अलग-अलग राज्यों में हर स्तर पर आंदोलन-अभियान चलते रहे लेकिन परिणाम सबके सामने है. सत्ता की भाषा बदल देने की लड़ाई इतनी आसान नहीं होती.



बिहार,उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश जैसे राज्यों की सरकारें इस मामले में हमेशा भ्रमित रही हैं, कभी पहली कक्षा से अँगरेज़ी पढ़ाने की बात होती है तो कभी सातवीं से. हिंदी को लेकर दक्षिण भारत में जो राजनीति है उससे भी सब अच्छी तरह वाकिफ़ हैं.


आपको याद ही होगा, ग्लोबलाइज़ेशन, उदारीकरण, बाज़ारीकरण का कितना विरोध एक दौर में हुआ था. धीरे-धीरे सही-ग़लत की बहस ख़त्म हो गई और पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकार तक ने मान लिया कि जिधर दुनिया जा रही है, उधर ही जाना होगा.



हिंदी के लिए भावुक होकर आप बहुत कह सकते हैं जो अब तक कहते रहे हैं लेकिन सोचिए यह लड़ाई भावना की नहीं, अवसरों की है

सोमवार, सितंबर 24, 2007

नीहारिका झा उस भागलपुर की हैं जो प्राचीन विश्वविद्यालय विक्रमशिला जैसे शिक्षा केंद्र और रेशम के लिए ख्यात रहा है. रहा है, शब्द का प्रयोग मैंने इसलिए किया कि विक्रमशिला की तरह रेशम भी अब अतीत होता जा रहा है वहां. वहां की तहजीब, नफासत नीहारिका की भाषा और अंदाजे-बयां में भी परिलक्षित होता है. उनकी स्कूल और कालेज की शिक्षा-दीक्षा स्थानीय स्तर पर हुई. दैनिक भास्कर, जयपुर में काम करने के बाद इन दिनों वे वेबदुनिया.काम में कार्यरत हैं. उन्होंने मुझे एक मेल किया, जिसमें सिर्फ उनकी सोच-विचार परिलक्षित होता है बल्कि कुछ काव्य पंक्तियों में उनकी भावनाओं का उत्पलावन भी दिखाई देता है. पत्र उन्होंने मुझे व्यक्तिगत रुप से लिखा था, लेकिन पर्सनल इज पोलिटिकल शायद इसी तरह के पत्रों को लेकर कहा जाता है. अगर संभव हो सका तो अगले सप्ताह से नीहारीका जी ख्वाब का दर पर बराबर दस्तक देती रहेंगी.

कैसे हैं पंकज जी?
एक आम लड़की की तरह ही अगर जिंदगी बितानी होती तो शायद घर से इतनी दूर मैं आती ही नहीं। जानते हैं बिहार में यही सोच है, खासकर मैथिल ब्राह्मण परिवारों में अभी भी यह बात गहरी समाई हुई है कि लड़कियों को अपना वजूद बनाने का हक तभी है जब उसके मां-बाप या शादी के बाद उसका पति उसे इस बात की इजाजत दे. बाद मैंने देखा कि यह भावना सिर्फ बिहार ही नहीं बल्कि पूरे देश में मौजूद है. मुझे पहले महसूस होता था कि बिहार में ही जातिवाद, अराजकता या भेदभाव वाली स्थिति है, लेकिन यह जानकर और ज्यादा दु:ख हुआ कि पूरे देश के लोग इस आग में जल रहे हैं. लोग कहते रहते हैं कि लड़कियाँ आगे बढ़ रही हैं, उनका विकास हो रहा है, लेकिन उनकी जिंदगी जिस दोराहे पर खड़ी हो गई, उस पर एक ओऱ जहां आधुनिक होने का ठप्‍पा लगा है वहीं दूसरी ओर घर-परिवार के मोर्चे पर उन्‍हें नाकाबिल साबित करने की लगातार कोशिश की जाती है. आज की स्थिति तो पहले से भी कहीं ज्‍यादा भयावह हो गई है. क्‍योंकि जानते हैं, दोराहे की जिंदगी बड़ी कष्‍टप्रद होती है.
मैं नारीवादी तो नहीं हूँ, हाँ कभी-कभी मन सेंटिया जाता है. इन बातों से आप बोर तो नहीं हो गए? अभी-अभी दिमाग में एकाध पंक्तियां आई हैं-
''मन आज भी उदास है,
एक गहरे कुँए की केवल इतना है
पत्‍थर मारो तो कुँए के पानी में
अब भी होती हैं हलचल
लेकिन इन आँखों का पानी न जाने कब सूख गया ? ''
हमारा संवाद बना रहेगा.
नीहारिका

शनिवार, सितंबर 22, 2007

क्या यही है हमारी मानवीयता का सच?

हिंदी के बेहद संवेदनशील कवि आलोकधन्वा ने अपनी मशहूर कविता सफेद रात में एक स्थान पर लिखा है-
बहस चल नहीं पाती
हत्याएं होती हैं
फिर जो बहसें चलती हैं
उसका भी अंत हत्याओं में होता है.

कुछ हिंदी चिट्ठाकारों की प्राथमिकताओं और लेखन के लिए चुने गए विषयों को देखकर बहुत दुःख होता है. क्योंकि जिन चिट्ठों पर राजनीतिक चर्चाओं को जगह मिलती है वहां भी नेपाल की ताजा स्थिति पर कोई बहस नहीं है. यह सच है कि आपको जो अच्छा लगे, जो विषय जंचे उस पर आप लिखें और अपने ब्लाग में छापें, मगर हम अपने समय की क्रूरताओं और हिंसा से आखिर कब तक तटस्थ रह सकते हैं? हमारे आसपास की घटनाएं ही नहीं, हमसे दूर घट रही घटनाएं भी हमें आज किसी न किसी रूप में प्रभावित करती हैं. आलोक के ही शब्दों में-क्या लाहौर फिर बस पाया? क्या वे बग़दाद को फिर से बना सकते हैं? वे तो रेत पर उतना भी पैदल नहीं चल सकते, जितना एक ऊंट का बच्चा चलता है, ढूह और गुबार से अंतरिक्ष की तरह खेलता हुआ.तो जो लाहौर को, काबुल को, बगदाद को बना नहीं सकता, बसा नहीं सकता, उसको मिटा देने का अधिकार दुनिया के दारोगा को आखिर किसने दिया है?
पीढ़ियों से नेपाल में रह रहे पहाड़ी मूल से अलग दिखने वाले लोगों को मधेशी कहकर अपमानित किया जाता रहा है. उन्हें कोई मूल अधिकार देने के बदले राजशाही दशकों से बहलाती रही.नेपाल जब लोकतांत्रिक देश बना तो भारतीय मूल के लोगों यानी मधेशियों की उम्मीदें जवां हुई. माओवादियों के ताकतवर होने के बाद प्रगतिशील लोगों की उनसे और अधिक उम्मीदें बढ़ गईं, लेकिन पिछले तीन-चार दिनों से माओवादियों के हथियारबंद दस्ते उन्हें पकड़-पकड़कर गोलियों से भून रहे हैं.पुलिस अभिरक्षा से मधेशी नेताओं को जबरन बुलाकर कत्ल किया जा रहा है. नेपाल के तराई में कर्फ्यू जैसा माहौल है. गांव-के-गांव खाली हो चुके हैं. लोग भारत पलायन कर रहे हैं और भारी अफरा-तफरी का माहौल है. दुखद यह है यह भी लोकतंत्र के वास्तविक बहाली अर्थात राजशाही की पूरी तरह समाप्ति के नाम पर हो रहा है.


लोकतंत्र का सबसे बड़ा दारोगा अमेरिका लोकतंत्र के नाम पर आज दुनिया के १३६ देशों में अपने सैनिकों की मौजूदगी को सुनिश्चित कर चुका है. इराक, अफगानिस्तान, सूडान, सीरिया, फिलिस्तीन,निकारागुआ, वियतनाम सब को रौंद चुका है. मोसोपोटामिया की उन्नत सभ्यता के देश इराक को आज एक विशाल कब्रिस्तान में बदलने की कवायद जारी है. फ्रांस के विदेश मंत्री के कल के खुलासे के अनुसार अमेरिका ईरान पर हमले की तैयारी को तकरीबन अंतिम रुप दे चुका है. यह सब लोकतंत्र के लिए हो रहा है और लोकतंत्र के नाम पर,लोकतंत्र की मजबूती के लिए हो रहा है. हैरतअंगेज यह है कि अमेरिका के कट्टर विरोधी नेपाल के माओवादी भी नेपाल निर्दोष मधेशियों की हत्या उसी कथित लोकतंत्र के नाम पर कर रहे हैं, जिस लोकतंत्र के नाम पर अमेरिका यह सब कुछ कर रहा है.


हिंदी चिट्ठाकारिता में इस त्रासद स्थिति की आहट नहीं सुनाई दे रही है. यह मानवीयता नहीं है शायद कि एक खास आइडेंटिटी के लिए हिंदी भाषियों की हत्या हो और हम किसी न किसी कारण या आग्रहवश इस हिंसा की अनदेखी करें. असम में, मुंबई में मात्र हिंदी भाषी होने के अपराध में लोगों की हत्या हो रही है. क्या किसी खास भाषा को बोलना अपराध है? सोचें हम कि यह चुनी हुई चुप्पी बौद्धिकता है, मौनम स्वीकृति लक्षणम् है, हिंसा का समर्थन है या क्या है यह?

शुक्रवार, सितंबर 21, 2007

काफ़िर, तनखैया और माओवाद


यह तकरीबन हर धर्म के मनमाने व्याख्याकारों के साथ दिक्कत है कि कोई रैशनल आदमी अगर जरा भी उनके तर्कों से असहमति व्यक्त करता है या वह अगर अत्यंत आपत्तिजनक तर्कों को काटने का प्रयत्न करता है, पंडितों, मुल्लाओं,ज्ञानियों या किसी खलीफा की सुनने से इनकार करने की जुर्रत करता है, तो वह फौरन क़ाफिर, तनखैया या देशद्रोही करार दे दिया जाता है.


बेहद हैरतअंगेज और चिंताजनक बात यह है कि प्रगतिशील और मार्क्सवाद का बाना धारण किये हुए, कुछ तो सिर्फ तन के स्तर पर- कोई जरा भी उनके तर्कों को अगर काटने की कोशिश करे, या उनके एकांगी और पूर्वाग्रही तर्कों को मानने से इनकार करे तो वे भी धार्मिकर अलंबरदारों की तरह ही ऐसे लोगों को फौरन फासिस्ट, और संघी-प्रतिक्रियावादी आदि-आदि कहकर कट लेते हैं. जो कि एक लोकतांत्रिक देश और व्यवहार के धरातल पर कतई उचित नहीं है.नेपाल में हथियारबंद माओवादियों ने एक दर्जन के करीब निर्दोष मधेशी नेताओं की गोली मारकर हत्या कर दी. माओवादियों की इस कार्रवाई के भी समर्थन में मेरे कुछ कथित प्रतिबद्ध माओवादी मित्रों ने समर्थन किया है-सिर्फ विचारधारा एक होने के कारण. सोचने की बात है कि क्या यही है सर्वहारा के कल्याण और जनता के लिए लड़ने का नारों का यथार्थ? क्या यही है जनाब प्रचंड की घोषणाओं की हकीकत? आखिर उनके उतावलेपन और बौखलाहट का कारण क्या है? जहां तक मैं जानता हूं मार्क्सवाद की किसी भी व्याख्या में निर्दोषों की हत्या करने का कोई प्रमाण कहीं नहीं मिलता. अगर यह सांच कहिये तो माओवाद समर्थक मित्र मारने दौड़ते हैं. क्या ऐसे ही मौकों को ध्यान में रखकर कबीर ने कहा था-

सांच कहै तो मारन धावै

झूठे जग पतियाना...साधो सब जग बौरान....

बुधवार, सितंबर 19, 2007

हम भी कुछ खुश नहीं वफा करके


इश्क में कहते हो हैरान हुये जाते हैं

ये नहीं कहते कि इन्सान हुए जाते हैं


- जोश मलीहाबादी

ऐ इश्क तूने अक्सर कौमों को खा के छोड़ा

जिस घर से सर उठाया उसको बिठा के छोड़ा


- हाली

इश्क कहते हैं जिसे सब वो यही है शायद

खुद-ब-खुद दिल में है इक शख्स समाया जाता


- हाली

देखा न आंख उठा के कभी अहले-दर्द ने

दुनिया गुजर गई गमे-दुनिया लिये हुये


-फानी बदायूंनी

इश्क कहता है दो आलम से जुदा हो जाओ

हुस्न कहता है जिधर जाओ नया आलम है


- आसी गाजीपुरी

अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जाएंगे
मर के भी चैन न पाया तो किधर जाएंगे


- जौक

बुत को बुत और खुदा को जो खुदा कहते हैं

हम भी देखें कि तुझे देख के क्या कहते हैं


- दाग


हम भी कुछ खुश नहीं वफा करके

तुमने अच्छा किया निबाह न की


- मोमिन

थोड़ी बहुत मुहब्बत से काम नहीं चलता ऐ दोस्त

ये वो मामला है जिसमें या सब कुछ या कुछ भी नहीं


- फिराक गोरखपुरी

फिर दिल पे है निगाह किसी की रुकी रुकी

कुछ जैसे कोई याद दिलाता है आज फिर


- फिराक गोरखपुरी

गरज कि काट दिए जिन्दगी के दिन ऐ दोस्त

वो तेरी याद में हो या तुझे भुलाने में


- फिराक गोरखपुरी

अंगड़ाई भी वो लेने न पाए उठा के हाथ

देखा जो मुझको छोड़ दिए मुस्कुरा के हाथ


- वफा रामपुरी

आ के तुझ बिन इस तरह ऐ दोस्त घबराता हूं

मैं जैसे हर शै में किसी शै की कमी पाता हूं मैं


- जिगर मुरादाबादी

तुम नहीं पास कोई पास नहीं

अब मुझे जिन्दगी की आस नहीं


- जिगर बरेलवी

हिज्र हो या विसाल ऐ अकबर

जागना रातभर कयामत है


- अकबर इलाहाबादी

मैं सच बोलूंगी और हार जाऊंगी

मैं सच बोलूंगी और हार जाऊंगी
वो झूठ बोलेगा और लाजवाब कर देगा

परवीन शाकिर

सच है यह कि आज हर जगह सच की हार हो रही है. सच बोलने वाले सच्चे लोग झूठ से, झूठे लोगों से हार रहे हैं.फर्जी और चालबाज लोग, चतुर-सुजान निश्छलों के मुकाबले ज्यादा बेहतर स्थिति में हैं. सत्ता से उनकी सांठ-गांठ भी अच्छी रहती है. इसलिए यह अकारण नहीं है कि हिंदी के आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कुटज नामक निबंध में अपनी मनोव्यथा को सही तरीके से व्यक्त किया है. क्या लेकर आए हैं लोग और क्या लेकर जाएंगे, मैं सोचता हूं-और लोग भी क्या यही सोचते हैं?

सोमवार, सितंबर 17, 2007

क्या अब्राहम लिंकन अमेरिका के ही राष्ट्रपति थे?

क्या अब्राहम लिंकन भी उसी अमेरिका के राष्ट्रपति थे जिस अमेरिका के राष्ट्रपति श्रीमान जार्ज डब्लयू. बुश साहब हैं?यकीन नहीं आता कि आज का अमेरिका वही अमेरिका है जिसके राष्ट्रपति कभी अब्राहम लिंकन हुआ करते थे. आज बुश साहब के नेतृत्व में अमेरिका जिस कदर दुनिया को अपने पांवों के तले रौंदने को लोकतंत्र की स्थापना का नाम दे रहा है उसके कारण सहसा यह यकीन नहीं होता. यह भी यकीन नहीं होता कि उसी अमेरिका में आज के पब्लिक इंटेलेक्चुअल नोम चोम्स्की साहब रहते हैं. जो अमेरिका आज हर बात का जवाब कलस्टर बम और अनेक तरह के हथियारों से देने का आदी हो चुका है उसी अमेरिका के कभी राष्ट्रपति जनाब अब्राहम लिंकन साहब ने अपने बेटे के शिक्षक को एक पत्र लिखा था. पेश है लिंकन साहब का वह अमर पत्र-

उसे सिखाना

उसे पढ़ाना कि संसार में दुष्ट होते हैं तो आदर्श नायक भी
कि जीवन में शत्रु हैं तो मित्र भी
उसे बताना कि श्रम से अर्जित एक डालर
बिना श्रम के मिले पांच डालर से अधिक मूल्यवान है


उसे सिखाना कि पराजित कैसे हुआ जाता है
यदि उसे सिखा सको तो सिखाना
कि ईर्ष्या से दूर कैसे रहा जाता है


नीरव अट्टहास का गुप्त मंत्र भी उसे सिखाना


तुम करा सको तो उसे पुस्तकों के आश्चर्यलोक की सैर अवश्य कराना
किंतु उसे इतना समय भी देना
कि वह नीले आकाश में विचरण करते विहग-वृंद के शाश्वत सत्य को जान सके
हरे-भरे पर्वतों की गोद में खिले फूलों को देख सके
उसे सिखाना कि पाठशाला में अनुत्तीर्ण होना अधिक सम्मानजनक है
बनिस्बत धोखा देने के


उसे अपने विचारों में आस्था रखना सिखाना
चाहे उसे सभी कहें यह विचार गलत है तब भी
उसे सिखाना कि सज्जन के साथ सज्जन रहना है
और कठोर के साथ कठोर

मेरे पुत्र को ऐसा मनोबल देना
कि भीड़ का अनुसरण न करे
और जब सभी एक स्वर में गाते हों तो उसे सिखाना कि तब वह धैर्य से सुने
किंतु वह जो कुछ सुने उसे सत्य की छलनी से छान ले
उसे सिखाना कि दुख में कैसे हंसा जाता है
उसे समझाना कि आंसुओं में कोई शर्म की बात नहीं होती
तुनकमिजाजियों को लताड़ना उसे सिखाना
और यह भी कि अधिक मधुभाषियों से सावधान रहना है


उसे सिखाना कि अपना मस्तिष्क
और विचार अधिकतम बोली लगाने वालों को ही बेचे
मगर अपने हृदय और आत्मा पर मूल्य-पट भी न टांके


उसे समझाना कि शोर करने वाली भीड़ पर कान न दे
और यदि वह समझे कि वह सही है
तो उस पर दृढ़ रहे और लड़े


उसके साथ सुकोमल व्यवहार करना
पर अधिक दुलारना भी मत
क्योंकि अग्नि-परीक्षा ही इस्पात को सुंदर
सुदृढ़ बनाती है
और बहादुर होने का धैर्य भी


उसे सिखाना कि वह सदैव अपने आप में उदात्त आस्था रखे
क्योंकि तभी वह
मनुष्य जाति में उदात्त आस्था रख पाएगा....

रविवार, सितंबर 16, 2007

कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है

चचा गालिब ने बहुत पहले इस चीज की भांप लिया था कि-
बेखुदी बेसबब नहीं गालिब,
कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है.


मैं नहीं जानता कि वह कुछ क्या है जिसके कारण हिंदी ब्लाग की दुनिया में बेहद सक्रिय कुछ दोस्तों को अपना नाम छिपाने के लिए मजबूर करती है? क्या सामने से लड़ने का साहस नहीं होने के कारण वे छिपकर वार करना ज्यादा मुफीद समझते हैं? क्या वे इस वहम में जीते हैं कि कथित स्टिंग आपरेशन की तरह उनके लिए भी साध्य पवित्र है, साधन चाहे लाख अपवित्र हो?


अजीब उलझन है कि लोग आदिविद्रोही, धुरविरोधी, पंगेबाज, घूघूती-बासूती वगैरह-वगैरह नाम रखकर हिंदी चिट्ठाकारिता की दुनिया में चरित्र प्रमाण पत्र बांटने का कथित पवित्र काम आपने हाथ में लेकर संशय, हिंसा और असहिष्णुता का माहौल बनाना चाहते हैं. याद रहे कि हिंदी के फक्कड़ मिजाज के विद्वान आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपने उपन्यास बाणभट्ट की आत्मकथा में एक जगह लिखा है कि डरना किसी से भी नहीं, गुरू से भी नहीं, मंत्र से भी नहीं तब फिर मेरे ब्लागर भाई यह क्यों सोचते हैं बिना कोई मूल्य चुकाये हम सत्य को प्राप्त कर लें?यह मत भूलिये कि सत्य अपना पूरा मूल्य चाहता है. झूठ के सिक्के से शायद सच को कभी हम खरीद ही नहीं सकते.

शुक्रवार, सितंबर 14, 2007

सबके दु:ख-सुख उसके चेहरे पे लिखे पाए गए

उर्दू शायरी में राहत इंदौरी एक बड़ा नाम है. उनकी शायरी में आम आदमी का दर्द जिस काव्यात्मक भाषा में अभिव्यक्त होता है वह आज की उर्दू शायरी में तकरीबन विरल है.

आज हिंदी दिवस है. सरकारी विभागों, उपक्रमों और बैंकों आदि में हिंदी को लेकर तमाम तरह की भाषणबाजियों का बाजार आज से हिंदी सप्ताह और हिंदी पखवाड़ा के नाम पर गर्म रहेगा. लोग हिंदी की बात करते-करते अक्सर उर्दू विरोध पर भी उतर आएंगे, जबकि उर्दू के नजदीक गए बिना हम शायद ही वास्तविक हिंदी को समझ सकें. मुझे हिंदी पोर्टल वेबदुनिया पर राहत साहब की तीन गज़लें मिल गई. उनके प्रति साभार. आप इन गज़लों को पढ़िये और बताइए कि कैसी लगी ये गजलें?

पेशानियों पे लिखे मुकद्दर नहीं मिले
दस्तर खान मिलेंगे जहाँ सर नहीं मिले

आवारगी को डूबते सूरज से रब्त है
मग़रिब के बाद हम भी तो घर पर नहीं मिले

कल आईनों का जश्न हुआ था तमाम रात
अंधे तमाशबीनों को पत्थर नहीं मिले

मैं चाहता था खुद से मुलाकात हो मगर
आईने मेरे कद के बराबर नहीं मिले

परदेस जा रहे हो तो सब देखते चलो
मुमकिन है वापस आओ तो वे घर नहीं मिले।



मस्जिदों के सहन तक जाना बहुत दुश्वार था
देर से निकला तो मेरे रास्ते में दार था

अपने ही फैलाव के नशे में खोया था दरख्त
और हर मौसम टहनी पर फलों का बार था

देखते ही देखते शहरों की रौनक बन गया
कल यही चेहरा था जो हर आईने पे बार था

सबके दु:ख-सुख उसके चेहरे पे लिखे पाए गए
आदमी क्या था हमारे शहर का अखबार था

अब मोहल्ले भर के दरवाजों पे दस्तक है नसीब
इक जमाना था के जब मैं भी बहुत खुद्दार था

कागज़ों की सब सियाही बारिशों में धुल गई
हमने जो सोचा तेरे बारे में सब बेकार था।


हर इक चेहरे को जख़्मों का आईना ना कहो
ये जिंदगी तो है रहमत इसे सजा न कहो

जाने कौन सी मजबूरियों का कैदी हो
वो साथ छोड़ गया है तो बेवफा न कहो

तमाम शहर ने नेज़ो पे क्यों उछाला मुझे
ये इत्तेफाक़ था इसे हादसा न कहो

ये और बात है के दुश्मन हुआ है आज मगर
वो मेरा दोस्त था कल तक उसे बुरा न कहो

हमारे ऐब हमें उँगलियों पे गिनवाओ
हमारी पीठ के पीछे हमें बुरा न कहो

मैं वाक़ियात की ज़ंजीर नहीं कायल
मुझे भी अपने गुनाहों का सिलसिला न कहो

ये शहर वो है जहाँ रक्कास भी है 'राहत'
हर इक तराशे हुए बुत को खुदा न कहो।

रविवार, सितंबर 02, 2007

पाकिस्तान में मुहाजिरों का हाल


आजादी की साठवीं सालगिरह मनाते हुए हम शायद उन लोगों को भूल रहे हैं जो भारत-पाकिस्तान के बंटवारे के कारण अपनी आंखों में नए मुल्क का ख्वाब लिए हुए भारत से पाकिस्तान गए और वहां जाकर मुहाजिर कहलाए। जो आज के पाकिस्तान यानी पश्चिमी पाकिस्तान गए वे मुहाजिर कहलाए और जो पूर्वी पाकिस्तान यानी आज के बांग्लादेश गए वे वहां जाकर बिहारी मुसलमान कहलाए। धर्म एक है, खुदा एक है बावजूद इसके इन साठ सालों में भी उनका अपना वतन कहीं नहीं है। जबकि उस वक्त के मुसलमानों सबसे चहेते रहनुमा कायदे आजम मोहम्मद अली जिन्‍ना ने रहमत अली के दिए हुए शब्द पाकिस्तान को मुसलमानों का एक ऐसा यूटोपिया बनाकर पेश किया था जहां जाकर उनके सारे मसले खत्म हो जाएंगे। मसले तो खत्म नहीं हुए अलबत्‍ता उनके तमाम अरमान आज भी स्थानीय मुसलमानों और दोयम दर्जे के सरकारी कानून के कारण खत्म होते जा रहे हैं। हम शायद उन्हें भी भूलने की गुस्ताखी नहीं कर रहे हैं जो बंटवारे की वजह से मारे गए, बेघर हुए और कुछ लोग आजाद वतन का ख्वाब आंखों में लिए हुए हिंदुस्तान आ गए और पाकिस्तान चले गए? इस तथ्य को आखिरकार हम कैसे भुला सकते हैं कि इस तकसीम में तकरीबन 5 लाख से ज्यादा लोग मारे गए, 10 हजार से ज्यादा महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया, 10 लाख से अधिक बंटवारे के बाद अपना घर-बार छोड़कर इधर-से-उधर आए और जो लोग उधर गए वे आज भी विस्थापितों की जिंदगी जीने के मजबूर हैं।


बंटवारे के बाद अपने लिए एक अलग देश का ख्वाब लिए हुए हिंदुस्तान से पाकिस्तान गए तकरीबन 50 फीसदी मुहाजिर बेहद गरीबी में कराची तथा सिंध प्रांत के अलग-अलग हिस्सों में रहते हैं। इस कथित आजादी के साठ साल बीत जाने के बाद भी उनकी जिंदगी में कोई बदलाव नहीं आया है। वे आज भी दाने-दाने के मोहताज हैं और पेट भरने के लिए कराची शहर के गुज्जर नाला, ओरंगी टाउन, अलीगढ़ कालोनी, बिहार कालोनी और सुर्जानी इलाकों में स्लम और बदबू भरी गलियों में किसी तरह जीवन बसर कर रहे हैं। मुहाजिर नौजवान बी.ए., एम.ए. पास करके धक्‍के खाते रहते हैं लेकिन उन्हें तमाम मुश्किलों के बाद भी नौकरी नहीं मिलती। विभाजन के बाद भारत से पलायन करके गए लोग पाकिस्तान की कुल जनसंख्या के तकरीबन 8 फीसदी हैं लेकिन वे सरकार की नजरों में इन साठ सालों के बाद भी इनसान नहीं मात्र एक संख्या हैं। भारत से वहां गए लोगों में काफी तादाद निम्न-मध्यम वर्ग के लोग भी थे जो सांप्रदायिक दंगों को झेलते हुए पाकिस्तान पहुंचे थे और उनके हाथों में कुछ भी नहीं था। जिन लोगों तब कुछ नहीं मिल सका उन्हें आजादी के साठ साल बीत जाने के बाद भी आज तक कुछ नहीं मिल सका है, सिवाए स्थानीय निवासियों के नफरतों के। वे तब भी गरीब थे और आज भी गरीब हैं। कराची के इन मुहाजिरों की एक पूरी पीढ़ी ने जहां बंटवारे का दर्द और सांप्रदायिक दंगों की पीड़ा झेली तो दूसरी ओर आज की युवा पीढ़ी गरीबी और दोयम दर्जे की सरकारी नीतियों की मार झेल रही है। इस धार्मिक विभाजन का सबसे त्रासद पहलू यह है कि इसमें कई चीजों की उपेक्षा करके मात्र धर्म को एक आधार बना दिया गया। तत्कालीन हिंदुस्तान के अल्पसंख्यक समुदाय में यह भावना भर दी गई थी कि हिंदू बहुल देश में रहना उनके लिए फायदेमंद नहीं होगा।


मुस्लिम लीग मुसलमानों के लिए धर्म के आधार पर एक अलग देश की मांग करने लगी थी। विश्व युद्ध के बाद यह साफ हो चुका था कि अब उनकी मांग की अनदेखी कर पाना संभव नहीं होगा। सत्‍ता हस्तांतरण के ट्रेनों में सीमा पार कर रहे लोगों की लाशें भेजी जानी लगी और कई बार तो लाशों को क्षत-विक्षत करके भेजते थे। भयावह यह है कि अन्य त्रासदियों की तरह इसमें भी सबसे ज्यादा हिंसा और बलात्कार की शिकार दोनों तरफ की महिलाएं हुईं। बचकर जो गरीब महिलाएं वहां पहुंच गई उनकी औलाद आज भी कराची की गलियों में पालीथिन बीनकर, मैला ढोकर सम्मान से जीने की कोशिश में ही हलकान होकर हताश हो चुकी है। बांग्लादेश यानी उस वक्त के पूर्वी पाकिस्तान गए बिहार के मुसलमान चूंकि उर्दू भाषी थे इसलिए वे आमार बांग्ला सोनार बांग्ला के कथित राष्ट्वादी धारा में फिट नहीं हो सकते थे इसलिये वे उनके लिये आज भी बाहरी लोग हैं। कराची के मुहाजिरों का दर्द भाषाई स्तर पर तो एक हद तक दुखदायी नहीं है लेकिन बांग्लादेश गए बिहारी मुसलमानों का दर्द आजादी के साठ वर्ष बीतने के बाद भी एक अछोर दर्द में तब्दील होकर रह गया है। वहां न उनका वतन है अपना, न भाषा है अपनी और कहने को ही सही न अपना कोई एक समाज विकसित हो सका है। उर्दू के शायर जोश मलीहाबादी, कथाकार सआदत हसन मंटो पाकिस्तान तो चले गए लेकिन वे कभी वहां सहज महसूस नहीं कर पाए। तत्कालीन पूर्वी-पश्चिमी पाकिस्तान के दोनों ओर अपने-अपने पाकिस्तान में आज भी अविभाजित हिंदुस्तान से गए मुसलमान वहां अपना वतन ढूंढ रहे हैं और सत्‍ता की बागडोर थामे रहनुमा इसमें उनकी कोई मदद नहीं कर पा रहे हैं।

शनिवार, सितंबर 01, 2007

एक रिश्ता जिसके आगे रिश्तेदारी भी फीके हैं

मित्र बनाने की परम्परा को छत्तीसगढ़ में मितान या मितानिन 'बदना' कहते हैं. इस 'बदना' का मतलब है एक तरह से अनुबंध की औपचारिकता.
दो पुरुष या दो महिलाएँ आपस में एक दूसरे को मितान बनाने के लिए एक दिन नियत करते हैं और मितान बद लेते हैं.कहीं फूलों का आदान-प्रदान किया और मित्र बन गए, तो कहीं गंगा जल या तुलसी के पत्तों का आदान-प्रदान हुआ. एक छोटे-से आयोजन में गौरी-गणेश और कलश की पूजा के बाद एक दूसरे को कोई पवित्र चीज़ देकर मितान 'बदा' जाता है.
कहीं-कहीं एक दूसरे का नाम अपने हाथों पर गुदवा कर (यानी उसका नाम अपने हाथ में स्थाई टैटू की तरह लिखवाकर) मितान बनने की भी परम्परा है. हालांकि स्वाभाविक सामाजिक परिवेश की वजह से इस परंपरा का विस्तार दो विपरीत लिंग वाले लोगों के बीच नहीं हो सका. यानी कोई पुरुष किसी महिला के साथ मितान नहीं बद सकता.
पीढ़ियों का साथ
इस मित्रता के कई नाम हैं, हालांकि व्यावहारिक रुप से सब एक से ही हैं.
मितान बनाने के लिए आदान प्रदान की जाने वाली चीज़ के आधार पर इनके नाम भी हैं- भोजली मितान, दौनापान, गंगाजल, सखी, महाप्रसाद, गोदना, गजामूंग.
दो पुरुष आपस मे मितान होते हैं और दो महिलाएँ मितानिन.
अब तो उम्र के आख़री पड़ाव में आ गए हैं लेकिन मुझको याद नहीं कि कभी हम दोनों के बीच किसी बात को लेकर, किसी भी तरह का कोई मनमुटाव हुआ हो. हर सुख-दुख में बिना आवाज़ दिए ही मैंने मितान को अपने साथ खड़ा पाया है

रामझूल
श्रावण मास की सप्तमी को धान के बीज बो कर उसे पूजने की परम्परा यहां रही है, जिसे भोजली कहा जाता है.
रक्षाबंधन के दूसरे दिन इस भोजली को विसर्जित किया जाता है. छत्तीसगढ़ में एक दूसरे को इसी भोजली को कानों में लगा कर भोजली मितान बनाने की प्रथा चलन में ज़्यादा है.
एक बार आपस में मित्र बन गए तो यह मित्रता आजीवन बरक़रार रहती है और आने वाली पीढ़ियों में भी उस मित्रता का निर्वाह किया जाता है.
मितान यानी हर सुख-दुख का साथी. किसी के यहां ब्याह हो या मृत्युपरांत मुंडन, मितान हर क़दम पर एक दूसरे के साथ होंगे.