दाइ म [1] पड़ा हुआ तेरे दर पर नहीं हूँ मैं
ख़ाक ऐसी ज़िन्दगी पे के पत्थर नहीं हूँ मैं
क्यूँ गर्दिश-ए-मुदाम[2] से घबरा न जाये दिल
इन्सान हूँ, पियाला-ओ-साग़र[3] नहीं हूँ मैं
यारब! ज़माना मुझ को मिटाता है किस लिये
लौह-ए-जहाँ[4] पे हर्फ़-ए-मुकर्रर[5] नहीं हूँ मैं
हद चाहिये सज़ा में उक़ूबत[6] के वास्ते
आख़िर गुनाहगार हूँ, काफ़िर नहीं हूँ मैं
किस वास्ते अज़ीज़ नहीं जानते मुझे
लाल-ओ-ज़मुर्रुदो--ज़र-ओ-गौहर [7]नहीं हूँ मैं
रखते हो तुम क़दम मेरी आँखों से क्यूं दरेग़
रुतबे में मेह्र-ओ-माह से कमतर नहीं हूँ मैं
करते हो मुझको मना-ए-क़दमबोस[8] किस लिये
क्या आसमान के भी बराबर नहीं हूँ मैं
'ग़ालिब' वज़ीफ़ाख़्वार[9] हो, दो शाह को दुआ
वो दिन गये कि कहते थे "नौकर नहीं हूँ मैं
" शब्दार्थ:
1. हमेशा
2. हमेशा की चिंता
3. जाम
4. संसाररूपी पृष्ठ
5. बार बार लिखा हुआ शब्द
6. कष्ट
7. लाल,पन्ना,सोना और मोती
8. पैर छूने से मना
9. वृति (पेंशन) पाने वाला
कठिन है रहगुज़र थोड़ी दूर साथ चलो/बहुत बड़ा है सफ़र थोड़ी दूर साथ चलो/तमाम उम्र कहाँ कोई साथ देता है/मैं जानता हूँ मगर थोड़ी दूर साथ चलो
शुक्रवार, जनवरी 29, 2010
बुधवार, जनवरी 20, 2010
निराशा में अमन की आशा का प्रहसन
कल आईपीएल की नीलामी में बड़े बेआबरू हुए पाकिस्तानी क्रिकेट खिलाड़ी. सब बिके पर वे न बिके. सबके खरीदार मिले, उनके न मिले. ऊपर से ये कि तमाम भारतीय न्यूज चैनल्स ने उन खिलाड़ियों से ऑन एयर ऐसे-ऐसे सवाल पूछे कि मारे शर्म के वे बेचारे कुछ कह भी न पाए.
हैरतअंगेज बात है कि वे अचानक अछूत हो गए। इसी आईपीएल में पाकिस्तानी खिलाड़ी पिछले सालों में खूब अच्छी तरह बिके थे. अच्छी कीमत पर बिके थे. तब वे ठीक थे, क्योंकि मुंबई में तब सब ठीक था. अब न मुंबई पहले जैसी रही, न पाकिस्तान का लाहौर, रावलपिंडी और पेशावर पहले जैसा रहा. सियासी स्तर पर जो तब्दीलियां हुईं, उसके कारण सब कुछ बदल गया. दोनों देशों के बीच पूरा समीकरण गड़बड़ हो गया. दूसरी ओऱ पाकिस्तान से नाटकों के दल भारत आ रहे हैं. गायकों की टोलियां भारत आ रही है. राहत फतेह अली, गुलाम अली जैसे ग़ज़ल गायक भारतीय जनता के बीच अपनी आवाज का जादू बिखेर रहे हैं.
पाकिस्तान की सरकारों ने आतंकियों को शह दी, आतंकी दोनों देशों के मासूम लोगों की जान रोज-ब-रोज ले रहे हैं. आत्मघाती हमले कर रहे हैं और इन तमाम घटनाओं के बीच भी नेता सुरक्षित हैं, बेचारी जनता मर रही है. नेता सियासत कर रहे हैं और दोनों मुल्कों की जनता भुगत रही है.
हैरतअंगेज बात है कि वे अचानक अछूत हो गए। इसी आईपीएल में पाकिस्तानी खिलाड़ी पिछले सालों में खूब अच्छी तरह बिके थे. अच्छी कीमत पर बिके थे. तब वे ठीक थे, क्योंकि मुंबई में तब सब ठीक था. अब न मुंबई पहले जैसी रही, न पाकिस्तान का लाहौर, रावलपिंडी और पेशावर पहले जैसा रहा. सियासी स्तर पर जो तब्दीलियां हुईं, उसके कारण सब कुछ बदल गया. दोनों देशों के बीच पूरा समीकरण गड़बड़ हो गया. दूसरी ओऱ पाकिस्तान से नाटकों के दल भारत आ रहे हैं. गायकों की टोलियां भारत आ रही है. राहत फतेह अली, गुलाम अली जैसे ग़ज़ल गायक भारतीय जनता के बीच अपनी आवाज का जादू बिखेर रहे हैं.
संगीत, नाटक, संस्कृति और पत्रकारिता के स्तर पर अमन की आशा व्यक्त की जा रही है. मगर दूसरी ओर खेल के स्तर पर नफरत और गिले-शिकवे के आधार पर फैसले किये जा रहे हैं.ऐसे में यह सवाल तो उठता ही है कि जब खिलाड़यों से ऐसी नफरत तो फिर वहां के कलाकारों को भारत क्यों बुला रहे हैं? कविता-कहानी और पत्रकारिता के स्तर पर अमन की आशा जैसा मुहिम चला रहे हैं, मगर खेल में नफरत दिखा रहे हैं? कलाकार स्वीकार्य और खिलाड़ी अछूत? ऐसा वर्गीकरण क्यों?
यदि इसी तरह का व्यवहार हमारे खिलाड़ियों के साथ पाकिस्तान करता, तो हम किस तरह की प्रतिक्रिया व्यक्त करते? यदि हमारे खिलाड़ियों को लाहौर बुलाकर वे लोग नीलामी से बैरंग लौटा देते, तो हम इसी तरह चुप रहते?
पाकिस्तान की सरकारों ने आतंकियों को शह दी, आतंकी दोनों देशों के मासूम लोगों की जान रोज-ब-रोज ले रहे हैं. आत्मघाती हमले कर रहे हैं और इन तमाम घटनाओं के बीच भी नेता सुरक्षित हैं, बेचारी जनता मर रही है. नेता सियासत कर रहे हैं और दोनों मुल्कों की जनता भुगत रही है.
सोमवार, जनवरी 18, 2010
बिहारी मुसलमानों की कौन सुनता है वहां?
आजादी मिलने के साथ ही विभाजन ने हिंदुओं को जो जख़्म दिये वे भारत आकर धीरे-धीरे भर गए। पूर्वी पाकिस्तान औऱ पश्चिमी पाकिस्तान से आए हिंदुओं से मूल हिंदुस्तान के किसी हिंदू ने कोई भेदभाव नहीं किया। वे धीरे-धीरे अपनी रोजी-रोटी कमाने लगे और यहां के समाज में घुल-मिल गए। पर हां, छूट गए गांव-घर, शहर, जमीन-जायदाद की याद आहें बनकर निकलती रही। पर ऐसा मुसलमानों के साथ नहीं हुआ।
बड़े पैमाने पर दिल्ली, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और बिहार के मुसलमान पाकिस्तान चले गए। कुछ रास्ते में मारे गए, कुछ वहां जाकर रोजी-रोटी की चिंता औऱ छूट गए भूगोल की यादों में डूबकर मर गए। जो जिंदा बचे वे आज तक उस समाज के भीतर जज्ब नहीं हो पाए। आज के पाकिस्तान में वे मुहाजिर बनकर जी रहे हैं-तीसरे दर्जे के नागरिक औऱ जो पूर्वी पाकिस्तान यानी आज के बांग्लादेश गए वे उर्दूभाषी मुसलमान बंगाली मुसलमानों के बीच खप ही नहीं पाए। आज तक वे वहां बिहारी मुसलमान कहे जाते हैं। न सरकारी तौर पर आजादी है और न सामाजिक तौर पर।
अपने मूल वतन से उखड़कर पाकिस्तान गए मुसलमानों को वाकई न ख़ुदा ही मिला, न विसाले सनम। नई उम्र के बच्चे अपने पुरखों को कोसते हैं-उनके फैसलों को कोसते हैं औऱ फिर अपने आपको भी कि वे चाहकर भी अपने पुरखों के गलत फैसले को ठीक नहीं कर सकते। वे चाहकर फिर वहां लौट नहीं सकते जहां से उखड़कर उनके पूर्वज गए थे। अब तो कोई उनसे हाथ भी न मिलाएगा, जबकि वे तपाक से गले मिलना चाहते हैं।
पिछले साल जब मैं पाकिस्तान गया था तो वहां सहारनपुर, मेरठ, लखनऊ, इलाहाबाद, बुलंदशहर, भागलपुर, बनारस से गए मुसलमानों की पुरानी पीढी़ से मिला था। उनके बचपन के लखनऊ के बारे में वहीं जाना था। मरने से पहले एक बार फिर लखनऊ देखने की उनकी विकलता को महसूस किया था। जैसे दिल्ली यूनिवर्सिटी के पास मलकागंज इलाके में कुछ बूढे सिखों को रावलपिंडी और लाहौर के लिए बेकरार होते देखा है।
बदीउज्जमां का उपन्यास एक चूहे की मौत के बारे में सुना है कि वह बिहार से पूर्वी पाकिस्तान गए मुसलमानों पर केंद्रित है, जो अब वहां बिहारी मुसलमान कहलाते हैं। पर अब तक मुझे बिहारी मुसलमानों की ठीक-ठीक वहां क्या हालत है, यह पता नहीं। मैं एक बार बांग्लादेश जाना चाहता हूं, वहां गलियों में भटकना चाहता हूं और उस देश की गलियों में आज भी अपनी मुकम्मल पहचान और अधिकारों के लिए भटकते बिहारी मुसलमानों की ज़मीनी हकीकत को देखना चाहता हूं।
इस मामले में आपकी क्या राय है?
बड़े पैमाने पर दिल्ली, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और बिहार के मुसलमान पाकिस्तान चले गए। कुछ रास्ते में मारे गए, कुछ वहां जाकर रोजी-रोटी की चिंता औऱ छूट गए भूगोल की यादों में डूबकर मर गए। जो जिंदा बचे वे आज तक उस समाज के भीतर जज्ब नहीं हो पाए। आज के पाकिस्तान में वे मुहाजिर बनकर जी रहे हैं-तीसरे दर्जे के नागरिक औऱ जो पूर्वी पाकिस्तान यानी आज के बांग्लादेश गए वे उर्दूभाषी मुसलमान बंगाली मुसलमानों के बीच खप ही नहीं पाए। आज तक वे वहां बिहारी मुसलमान कहे जाते हैं। न सरकारी तौर पर आजादी है और न सामाजिक तौर पर।
अपने मूल वतन से उखड़कर पाकिस्तान गए मुसलमानों को वाकई न ख़ुदा ही मिला, न विसाले सनम। नई उम्र के बच्चे अपने पुरखों को कोसते हैं-उनके फैसलों को कोसते हैं औऱ फिर अपने आपको भी कि वे चाहकर भी अपने पुरखों के गलत फैसले को ठीक नहीं कर सकते। वे चाहकर फिर वहां लौट नहीं सकते जहां से उखड़कर उनके पूर्वज गए थे। अब तो कोई उनसे हाथ भी न मिलाएगा, जबकि वे तपाक से गले मिलना चाहते हैं।
पिछले साल जब मैं पाकिस्तान गया था तो वहां सहारनपुर, मेरठ, लखनऊ, इलाहाबाद, बुलंदशहर, भागलपुर, बनारस से गए मुसलमानों की पुरानी पीढी़ से मिला था। उनके बचपन के लखनऊ के बारे में वहीं जाना था। मरने से पहले एक बार फिर लखनऊ देखने की उनकी विकलता को महसूस किया था। जैसे दिल्ली यूनिवर्सिटी के पास मलकागंज इलाके में कुछ बूढे सिखों को रावलपिंडी और लाहौर के लिए बेकरार होते देखा है।
बदीउज्जमां का उपन्यास एक चूहे की मौत के बारे में सुना है कि वह बिहार से पूर्वी पाकिस्तान गए मुसलमानों पर केंद्रित है, जो अब वहां बिहारी मुसलमान कहलाते हैं। पर अब तक मुझे बिहारी मुसलमानों की ठीक-ठीक वहां क्या हालत है, यह पता नहीं। मैं एक बार बांग्लादेश जाना चाहता हूं, वहां गलियों में भटकना चाहता हूं और उस देश की गलियों में आज भी अपनी मुकम्मल पहचान और अधिकारों के लिए भटकते बिहारी मुसलमानों की ज़मीनी हकीकत को देखना चाहता हूं।
इस मामले में आपकी क्या राय है?
शनिवार, जनवरी 16, 2010
उन्हें खेल का क्या इल्म है?
भारतीय मीडिया, नेता औऱ जनता के साथ एक बात कॉमन है कि वह बहुत जल्दी भूल जाते हैं। चाहे सरहद पर शहीद सैनिक हों या ओलंपिक में पदक जीतने वाले खिलाड़ी। करगिल में लड़ाई के समय और मुंबई हमले के समय मीडिया ने सैनिकों के प्रति, उनके परिवारों के प्रति जैसा माहौल बनाया, बाद में उसके बारे में बिल्कुल जानना जरूरी नहीं समझा कि वे अब किस हाल में है। मजबूरन खिलाड़ी कभी पदक बेचने की बात करते हैं, कभी उन्हें हड़ताल करना पड़ता है, तो कभी दुखी होकर खेल ही छोड़ देने की बात कहनी पड़ती है। फॉलोअप की संस्कृति से दूर मीडिया यह सब उस तरह से कवर नहीं करता, जैसा उनकी उपलब्धियों के समय कवरेज करता है।
ओलंपिक में 113 साल के बाद अभिनव बिंद्रा के रूप में किसी भारतीय ने स्वर्ण पदक जीता। तब मीडिया और सरकार ने खूब उनका गुणगान किया। बाद में अधिकारी पुराने ढर्रे पर लौट आए। मातहतों को गुलाम समझने की मानसिकता वाले अधिकारी पक्के अधिकारी हो गए। निशानेबाजी का ककहरा भी जो नहीं जानते वे यह तय करने लगे कि उन्हें कहां प्रशिक्षण लेना है, कहां अभ्यास करना है। अभिनव को जर्मनी से बुलाया गया, मगर उनके कोचिंग की व्यवस्था नहीं हो पाई। कभी खर्चे का रोना रोया गया। खेल अधिकारियों और ब्यूरोक्रेसी के रवैये से आजिज आकर आखिरकार उन्हें मीडिया में आकर यह कहना पड़ा कि ऐसे में वे खेल नहीं पाएंगे।
इसी हफ्ते हॉकी के खिलाड़ियों ने भी पैसे को लेकर हड़ताल किया। मामला जब गरमाया तब जाकर सरकार को लगा कि किसी भी समस्या को नजरअंदाज कर देने समस्या टलती नहीं। फिर खिलाड़यों के पैसे के मामले को लेकर दूसरे लोग भी आगे आए। पर दुखद यह है कि जब तक खिलाड़यों ने हड़ताल नहीं की, पैसे को लेकर एकदम अड़ नहीं गए तब तक न सरकार आगे आई और न ही वे लोग आगे आए जो अब आए हैं। इससे ये नहीं लगता कि हमारी सरकार और समाज का जमीर तब तक नहीं जागता जब तक कि कुछ हो-हंगामा न हो। यही हॉकी खिलाड़यों के साथ भी हुआ और यही रुचिका मामले के साथ भी। रुचिका मामले में जब हंगामा हुआ तभी कानून मंत्री जागे, तभी गृह मंत्री जागे, तभी महिला आयोग ने रुचि ली और थक-हारकर अदालत का विवेक भी तभी जागा।
राष्ट्रीय खेल होने के बावूज हॉकी के लिए सरकारी स्तर पर इतनी उदासीनता शर्मनाक है। जबकि क्रिकेट आगे सब नतमस्तक हैं। मल्टीनेशनल कंपनियां क्रिकेट को कैश कराने में मस्त हैं। मीडिया क्रिकेट की हार-जीत को देश की हार और जीत का पर्याय बनाकर पेश करती है। मानो किसी देश से युद्ध में हार हुई हो या युद्व में हराया हो। मगर हॉकी के लिए कुछ नहीं होता। वे जीतते हैं तो एयरपोर्ट पर उनके लिए वह भीड़ नहीं उमड़ती, उन्हें क्रिकेट वालों की तरह प्यार और पैसा नहीं मिलता। पूर्व क्रिकेट खिलाड़ी और अब बीजेपी के सांसद कीर्ति आजाद ने कहा था कि जिन्होंने जीवन में कभी बल्ला नहीं पकड़ा, वे तय कर रहे हैं कि कौन खेले और कौन नहीं। समझ में नहीं आता कि क्रिकेट बोर्डों में नेता और अफसर वहां क्या कर रहे हैं? राजनीतिक दलों के सांसद और पत्रकार क्रिकेट बोर्ड में क्या कर रहे हैं? लालू यादव जैसे लोग क्रिकेट से क्यों उन्हें खेल का क्या इल्म है?
हकीकत यही है कि जो खिलाड़ी नहीं वे खेल का भविष्य बांचते और तय करते हैं, जो संगीत नहीं जानते वे संगीत पर फैसले सुनाते हैं, जो लिखना नहीं जानते वे किताबों की समीक्षा करते हैं। शायद यह सब अपने देश में ही इस तरह संभव है।
ओलंपिक में 113 साल के बाद अभिनव बिंद्रा के रूप में किसी भारतीय ने स्वर्ण पदक जीता। तब मीडिया और सरकार ने खूब उनका गुणगान किया। बाद में अधिकारी पुराने ढर्रे पर लौट आए। मातहतों को गुलाम समझने की मानसिकता वाले अधिकारी पक्के अधिकारी हो गए। निशानेबाजी का ककहरा भी जो नहीं जानते वे यह तय करने लगे कि उन्हें कहां प्रशिक्षण लेना है, कहां अभ्यास करना है। अभिनव को जर्मनी से बुलाया गया, मगर उनके कोचिंग की व्यवस्था नहीं हो पाई। कभी खर्चे का रोना रोया गया। खेल अधिकारियों और ब्यूरोक्रेसी के रवैये से आजिज आकर आखिरकार उन्हें मीडिया में आकर यह कहना पड़ा कि ऐसे में वे खेल नहीं पाएंगे।
इसी हफ्ते हॉकी के खिलाड़ियों ने भी पैसे को लेकर हड़ताल किया। मामला जब गरमाया तब जाकर सरकार को लगा कि किसी भी समस्या को नजरअंदाज कर देने समस्या टलती नहीं। फिर खिलाड़यों के पैसे के मामले को लेकर दूसरे लोग भी आगे आए। पर दुखद यह है कि जब तक खिलाड़यों ने हड़ताल नहीं की, पैसे को लेकर एकदम अड़ नहीं गए तब तक न सरकार आगे आई और न ही वे लोग आगे आए जो अब आए हैं। इससे ये नहीं लगता कि हमारी सरकार और समाज का जमीर तब तक नहीं जागता जब तक कि कुछ हो-हंगामा न हो। यही हॉकी खिलाड़यों के साथ भी हुआ और यही रुचिका मामले के साथ भी। रुचिका मामले में जब हंगामा हुआ तभी कानून मंत्री जागे, तभी गृह मंत्री जागे, तभी महिला आयोग ने रुचि ली और थक-हारकर अदालत का विवेक भी तभी जागा।
राष्ट्रीय खेल होने के बावूज हॉकी के लिए सरकारी स्तर पर इतनी उदासीनता शर्मनाक है। जबकि क्रिकेट आगे सब नतमस्तक हैं। मल्टीनेशनल कंपनियां क्रिकेट को कैश कराने में मस्त हैं। मीडिया क्रिकेट की हार-जीत को देश की हार और जीत का पर्याय बनाकर पेश करती है। मानो किसी देश से युद्ध में हार हुई हो या युद्व में हराया हो। मगर हॉकी के लिए कुछ नहीं होता। वे जीतते हैं तो एयरपोर्ट पर उनके लिए वह भीड़ नहीं उमड़ती, उन्हें क्रिकेट वालों की तरह प्यार और पैसा नहीं मिलता। पूर्व क्रिकेट खिलाड़ी और अब बीजेपी के सांसद कीर्ति आजाद ने कहा था कि जिन्होंने जीवन में कभी बल्ला नहीं पकड़ा, वे तय कर रहे हैं कि कौन खेले और कौन नहीं। समझ में नहीं आता कि क्रिकेट बोर्डों में नेता और अफसर वहां क्या कर रहे हैं? राजनीतिक दलों के सांसद और पत्रकार क्रिकेट बोर्ड में क्या कर रहे हैं? लालू यादव जैसे लोग क्रिकेट से क्यों उन्हें खेल का क्या इल्म है?
हकीकत यही है कि जो खिलाड़ी नहीं वे खेल का भविष्य बांचते और तय करते हैं, जो संगीत नहीं जानते वे संगीत पर फैसले सुनाते हैं, जो लिखना नहीं जानते वे किताबों की समीक्षा करते हैं। शायद यह सब अपने देश में ही इस तरह संभव है।
गुरुवार, जनवरी 14, 2010
हमारी सारी दुनिया हो गयी झूठी
बड़े भाई, यादवेन्द्र जी द्वारा अनूदित कविताएं अब तक हम इस ब्लाग पर प्रस्तुत करते रहे हैं। इस बार पेश है उनकी लिखी एक कविता, जिसके संदर्भ के लिए यहां पेश है खत में व्यक्त विचार.
२८ जनवरी १९८९ को लिखी अपनी एक पुरानी कविता आज जाने क्यों अचानक याद आ गयी..ढूंढा तो मिल भी गयी, हांलाकि आसानी से मेरी पुरानी चीजें मिलती नहीं हैं...हुआ ये कि मेरी छोटी बेटी मृदु जिसके पहली बार खड़े हो कर चलने को देख के मैं इतना अभिभूत हो गया था कि ये कविता उसी समय लिख डाली थी--बेटियों की कविता सिरीज में मेरी ये कविता भी शामिल है और मित्रों के आग्रह पर मैं इसको कई बार सुनाता भी हूँ..आज मेरी ये बेटी इंजिनियर बनने वाली है...आज ये कविता आपके साथ साझा कर रहा हूँ इस उम्मीद के साथ कि आपको भी इसमें धीरे धीरे जीवन से विलुप्त होती जा रही संवेदनाओं की कुछ छुअन मिलेगी...
प्रस्थान बिंदु
वह आज चली
पहली बार
ताज़ा भोर हुई
जैसे सदियों की बर्फ गली
वह आज चली....
वह आज गिरी
पहली बार
मैं झपटा उठाऊ उसे
जैसे कोई गिन्नी चोरों से घिरी
वह आज गिरी...
उसने मुझे पकड़ा भर कर
पहली बार
तारे तोड़ लाऊंगा उसके लिए
मैं आकाश तक हो गया बढ़ कर
उसने मुझे पकड़ा भर कर...
वह आज उठी
पहली बार
बल खाती गुर्राती ज्वार की तरह
हमारी सारी दुनिया हो गयी झूठी
वह आज उठी...
वह आज चली
वह आज गिरी
उसने मुझे पकड़ा भर कर
वह आज उठी
पहली बार
और बार बार...!
शुक्रवार, जनवरी 08, 2010
पाकिस्तान- हिंदुस्तान के लोगों को कैसी आजादी?
देश आज़ाद को आज़ादी मिली, लोगों की कुर्बानियां रंग लाई, मगर ज़मीन पर लकीर खींचने की शर्त के साथ। आज़ादी का पूरा लुत्फ खुली हवा में ही उठाया जा सकता है। वतन जब अपना हो, तमाम अख़्तियारात जब अपने ज़द में हो तभी हम आज़ाद हैं। नेताओं ने सोचा और नेताओं के बगलगीरों ने सोचा...फिर मुल्क बंटा...नदी बंटी...सेना बंटी...माल-ओ-दौलत का बंटवारा हुआ। फिर लकीर दिल पर खींची जाने लगी। यह लकीर इतनी बड़ी होती चली गई कि सात समंदर पार के देशों में जाना आसान, मगर घर के पड़ोस में नहीं।
सरकारें आती रहीं, सरकारें जातीं, तीन बार सेनाओं ने ज़ोर-आजमाईश की, गरीब घरों से आकर फौज में भर्ती नौजवान एक देश की भाषा में शहीद हुए, दो दूसरी देश की भाषा में मारे गए। फिर तो लकीर और बड़ी होती चली गई। सियासतदानों, आतंकियों, फौजियों ने इसकी ऊंचाई और बढ़ा दी है। हिंदुस्तान-पाकिस्तान के दो बड़े अखबार घराने इन दिनों इस लकीर को लांघने की कोशिश कर रहे हैं और उम्मीद कर रहे हैं- अमन की आशा। आशा-निराशा दोनों का खेल इसमें चल रहा है। कुछ लोगों को लगता है कि यह आशा व्यर्थ है, यह प्रयास फलीभूत नहीं होगा- पहले बात कश्मीर पर करो, पहले बात फौजियों को घटाने पर करो....गोया अमन की आशा शर्तों और कंडीशंस की बांदी हो गई। पर यहां यह याद रहे कि हम उनके घर नहीं जाते, वो मेरे घऱ नहीं आते...मगर इन एहतियातों से तआल्लुक मर नहीं जाते।
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