गुरुवार, मार्च 08, 2007

साहित्य अकादमी पुरस्कार लेने के बाद कवि ज्ञानेंद्रपति का वक्तव्य


आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने बीसवीं शती के पूर्वार्ध में जब सभ्यता की जटिलता के साथ-साथ कवि-कर्म की कठिनता के बढ़ने की बात कही थी, उन्हें इसका ठीक-ठीक पूर्वानुमान नहीं हो सकता था कि शती के अंत तक आते-आते एक ओर तो सभ्यता अनावरित होकर नृशंसता के नग्न रूप में खड़ी होगी और दूसरी ओर, वह इतनी कुटिल होगी कि अधिसंख्य लोगों के दिमाग को अनुकूलित करने में कामयाब होगी.लेकिन यह ऐसा ही समय है.ऐसे समय में अभिव्यक्ति-स्वातन्त्र्य कविता का जरूरी मोर्चा होता है. अकेला दिखता हुआ भी कवि इस मोर्चे पर अकेले नहीं होता. अभिनव काव्यानुभूति हासिल करने का उसका सृजन संकल्प स्मृति-संपन्नता के बीच उपजता है. आज हिंदी के कवि को आँखिन देखी कहने वाले कबीर से लेकर विश्व-चेतस कवि मुक्तिबोध तक का ही साथ नहीं है, बल्कि अंगऱेजी के व्हिटमैन, रूसी के मायकोव्स्की, जर्मन के ब्रेख्त, स्पेनिश के नेरुदा और तुर्की के नाज़िम हिकमत भी उसके सगे हैं. ये तो चंद नाम हैं. परंपरा के बोध और आधुनिकता की चेतना ने हिंदी कविता को अनूठे सामर्थ्य से संवलित किया है.

खड़ी बोली के खड़े होने और हिंदी में ढलने की संक्रांति-बेला को बमुश्किल शताधिक साल बीते हैं, भाषाओं के इतिहास में जिसे बड़ा वक्फा नहीं कहा जा सकता. लेकिन उन्हीं उथल-पुथल भरे दिनों की देन है कि हिन्दी की हड्डियों में साम्राज्यवाद-विरोध की अस्थि-मज्जा है. औपनिवेशिक शासन से मुक्ति के लिए छिड़े संग्राम के उन दिनों में जब लोगों को आसेतुहिमाचल एकदेशियता के सूत्र में आबद्ध कर रही थी, कवि निराला ने मुक्तछंद में मुक्ति के स्वप्न और संकल्प संजोये. इस मुक्तछंद का मुक्ति-संग्राम से नाभिनाल-संबंध था,उसकी आनुवंशिकी मुक्त स्वभाव वैदिक मंत्रद्रष्टा ऋषियों तक जाती थी.मुक्ति की यह चाह केवल राजनैतिक मुक्ति तक महदूद न थी, तमाम सामाजिक और आर्थिक विषमताओं से मुक्ति अभीष्ट थी, सकल मानव-जीवन का उन्नत स्तर पर प्रतिष्टापन उद्दिष्ट था. जन-जन तक पहुँचना और उसे सँवारना चाहने वाला मुक्तछंद ही अग्रसर हिन्दी कविता की मुख्यधारा बना. मैं इसी की एक तरंग हूँ, बल्कि वीचि-लघूर्मि नन्हीं-सी लहर.

नव-साम्राज्यवाद के इन रोबीले-सजीले दिनों में हिन्दी कविता के घर में एक तरह की उदासी अटी हुई है. कवि देखता हैः एक आभासी दुनिया की मायावी धूप-छाँह में उसकी भाषा के सकरूण शब्दों के अर्थ निष्करूण अनर्थ में बदले जा रहे हैं,हिन्दी का इस्तेमाल इश्तेहारों का संवाहक बनने में है. बाज़ार से बेज़ार होना हिन्दी कवि को हाशिये पर डालता है.लेकिन यही उसका गौरव है और उसके यहाँ, प्रायःहाशिये की जिंदगी केन्द्रीयता पाती है. मैंने कहा, हिन्दी कविता के घर में एक तरह की उदासी अटी हुई है.उदासी, लेकिन हताशा नहीं. तभी तो घुरबिनिया बच्चों की तरह घूमता रहता हूँ-परित्यक्त सच्चाइयों के बीच भी-जीवंत-ज्वलंत सार्थक की तलाश में.

2 टिप्‍पणियां:

अफ़लातून ने कहा…

वक्तव्य प्रस्तुत करने के लिए आभार | 'पहल' सम्मान की एक रपट http://kashivishvavidyalay.wordpress.com/2007/02/26/gyanendrapati-pahal-felicitation/ तथा एक साक्षात्कार यहां पर देखे जा सकते हैँ |

अनूप शुक्ल ने कहा…

बहुत-बहुत आभार यह वक्तव्य यहां प्रकाशित करने के लिये!