शुक्रवार, दिसंबर 18, 2009


कोई मनुष्य ख़ुद अपने आप को जितना बेहतर जानेगा उतना कोई और नहीं जान सकता। सो मिर्जा ग़ालिब जानते थे दुनियादारी की दिक्कतें और दुनिया के लोगों की चालाकियां-मक्कारियां. इस नश्वर संसार में तख्त-ओ-ताऊस के लिए लड़ते-मरते, इन उपलब्धियों को ही जीवन की सार्थकता समझने वाले लोगों की भारी भीड़ की मानसिकता वे जानते थे. जानते थे दुनियावी सफलता-असफलता की क़ीमत. मुलाहिज़ा फ़रमाएं उनकी यह ग़ज़ल-

यारब! ज़माना मुझ को मिटाता है किस लिए
लौह-ए-जहाँ पे हर्फ़-ए-मुकर्रर नहीं हूँ मैं

हद चाहिये सज़ा में उक़ूबत के वास्ते
आख़िर गुनहगार हूँ, काफ़िर नहीं हूँ मैं

किस वास्ते अज़ीज़ नहीं जानते मुझे
लाल-ओ-ज़ुमरूद-ओ-ज़र-ओ-गौहर नहीं हूँ मैं

रखते हो तुम क़दम मेरी आँखों से क्यूं दरेग़
रुतबे में महव-ओ-माह से कमतर नहीं हूँ मैं

करते हो मुझको मना-ए-क़दमबोस किस लिए
क्या आस्माँ के भी बराबर नहीं हूँ मैं

'ग़ालिब' वज़ीफ़ाख्‍वार हो, दो शाह को दुआ
वो दिन गए कि कहते थे, नौकर नहीं हूं मैं