1991 में जब उन्हें फौजी शासन ने गिरफ्तार किया तो पुलिसकर्मियों के घर से स्त्रियों ने अपने प्रिय कवि को खाना बनाकर भेजना शुरू किया. चार वर्ष की जेल के दौरान उनके आश्चर्य की सीमा न रही, जब उन्होंने जेल की दीवार पर कोयले से लिखी अपनी ही बहुचर्चित कविता पढ़ी. सिगार बुझ चुका है ...सूरज धूसर पड़ गया है. क्या अब भी कोई मुझे नहीं पहुंचाएगा अपने घर?
देश का सर्वोच्च सम्मान जिस कवि को दिया गया था, उसी ने जेल से बाहर आने के बाद सैनिक तानाशाही की प्रताड़ना से तंग आकर विदेश चले जाने का फैसला किया. अपने जीवन के आखरी बारह वर्ष इस अनूठे कवि ने अमेरिका में बिताए और अपनी आखिरी साँस भी वही ली. उनके साहित्य पर अब भी बर्मा में पाबंदी लगी हुई है. अनेक बर्मी कवियों की तरह ही तिन मोये ने भी प्रतीकों का सहारा लेकर अपनी बात कही.
अपने प्रिय देश को वे कैसे याद करते हैं इसकी एक मिसाल इस कविता में देखी जा सकती है. हमेशा की तरह हमारे लिए इस महत्वपूर्ण कवि की कविता का अनुवाद बड़े भाई यादवेन्द्र जी ने किया है. जिनका वादा है कि उनकी और महत्वपूर्ण कविताओं के साथ मैं जल्दी ही फिर हाजिर होऊंगा.
बंद दरवाजा
मेरा मन करता है
इतरा कर उडू पंछी बन कर
अपने प्रिय के आगे-पीछे
पर अफ़सोस करूँ क्या
बहेलिया निकल पड़ा है
परिंदों का शिकार करने....
मेरा मन करता है
लह-लह खिल पडूं
रंग-बिरंगा पुष्प बन कर
अपने प्रिय के आस-पास
पर अफ़सोस करूँ क्या
शातिर भौंरा निकल पड़ा है
उन्हें तहस-नहस करने
मेरा मन करता है
फिरकुं नयी पत्ती बन कर
अपने प्रिय की आँखों के सामने
पर अफ़सोस
करूँ क्या तेज अंधड़ पिल पड़ी है
सब कुछ रोंद डालने को...
मेरा मन करता है डुबो दूँ
प्रखर चाँद बन कर
चांदनी में अपने प्रिय को
पर अफ़सोस करूँ क्या
आज निष्ठुर धरती लगाने लगी है
उसी पर ग्रहण ...
पर कुछ भी जुगत करके
यदि पहुँच भी जाऊं अपने प्रिय के दर
अफ़सोस उढ़का हुआ है उसका दरवाजा
और नदारद है रौशनी भी वहां से...
(अंग्रेजी में विन पे के किये अनुवाद पर आधारित, अनुवाद- यादवेन्द्र)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें