लुधियाना से दिल्ली आ रहा था. बिहार की तरफ जाने वाली एक ट्रेन अमृतसर से आकर प्लेटफार्म पर खड़ी हुई। गरीब-मजलूम जनता गिरती-पड़ती जनरल बोगी की ओर भागी. आम तौर पर लंबी दूरी की गाड़ियों में जेनरल बोगी के दो ही डिब्बे होते हैं. भारी भीड़ की उम्मीद इन्हीं डिब्बों पर टिकी होती है. डिब्बे के पास जाकर लोगों ने देखा सेना के जवान किसी को घुसने नहीं दे रहे हैं. कोई अगर घुसने की गुस्ताखी करे तो लात-घूंसों से मार-मार कर भगा देते. दोनों डिब्बे पर फौजियों ने कब्जा कर लिया और वे मजलूम लोग लात-घूंसे खाकर भी घर नहीं जा पाए.
कठिन है रहगुज़र थोड़ी दूर साथ चलो/बहुत बड़ा है सफ़र थोड़ी दूर साथ चलो/तमाम उम्र कहाँ कोई साथ देता है/मैं जानता हूँ मगर थोड़ी दूर साथ चलो
गुरुवार, दिसंबर 31, 2009
क्या भारतीय सेना पाकिस्तानी सेना जैसी बन रही है?
लुधियाना से दिल्ली आ रहा था. बिहार की तरफ जाने वाली एक ट्रेन अमृतसर से आकर प्लेटफार्म पर खड़ी हुई। गरीब-मजलूम जनता गिरती-पड़ती जनरल बोगी की ओर भागी. आम तौर पर लंबी दूरी की गाड़ियों में जेनरल बोगी के दो ही डिब्बे होते हैं. भारी भीड़ की उम्मीद इन्हीं डिब्बों पर टिकी होती है. डिब्बे के पास जाकर लोगों ने देखा सेना के जवान किसी को घुसने नहीं दे रहे हैं. कोई अगर घुसने की गुस्ताखी करे तो लात-घूंसों से मार-मार कर भगा देते. दोनों डिब्बे पर फौजियों ने कब्जा कर लिया और वे मजलूम लोग लात-घूंसे खाकर भी घर नहीं जा पाए.
मंगलवार, दिसंबर 29, 2009
बलात्कारी महासंघ के माननीय सदस्यों के नाम...
शनिवार, दिसंबर 26, 2009
हम सब डटे रहेंगे यहीं इसी धरती पर साथी
टूटे सितारों की संतान
साथी, तुम अपने विश्वासों को
इस तरह पालते-पोसते रहे
जैसे हों वे तुम्हारी अपनी ही संतानें-
साथी, तुमने अनवरत जलाये रखी
लौ अपने जख्मों की
जैसे हों वे लम्बी बत्ती वाली प्रकाशमान ढिबरियां
साथी, तुम सहलाते रहे अपने जख्म
अपनी जीभ से ही निरंतर
और सीख लिया कैसे रहा जाता है
जीवित काल से परे जा कर भी...
साथी, तुमने उधेड़ ली अपनी चमड़ी
धारदार कर ली अपनी हड्डियाँ
नुकीली सुइयों-सी
और इनसे ही सिल लिए अपने लिए
सही नाप के सुन्दर लुभावने परिधान...
साथी, ठहरो मेरे साथी
संवारना जितना मुमकिन हो पाए
इस धरती की ठेसों और जख्मों को
जिस पर टूट-टूट कर गिरते रहते हैं अनगिन तारे
पर साथी, हम सब डटे रहेंगे इसी धरती पर...
आगे बढ़ो साथी
हम अपनी अपनी हथेलियों से ढांपे, रोके रखेंगे
धरती के अंदर का ताप
जिस पर कितने भी क्रुद्ध होकर
क्यों न चलते रहें अनेकों सूर्य
अपने-अपने कोप के बाण
पर साथी, हम सब डटे रहेंगे यहीं इसी धरती पर...
पहले कदम तुम बढ़ो साथी
निर्मित करो विषय-सूची वाला पहला पृष्ठ
कि तुम्हारे गीत ही प्रवहमान हों
धरती के शोकाकुल ग्रामोफोन के गर्भ से...
साथी, हम सब डटे हुए हैं यहीं इसी धरती पर...
साथी, तुम आगे बढ़ते जाओ अपने दृढ़ कदम
जब मयूरध्वज* सिर उठाकर फहराएगा
लहराएगा फिर से आसमान में
हमारे विश्वविद्यालयों के उन्नत परकोटों पर...
हम सब डटे रहेंगे यहीं इसी धरती पर साथी...
*मयूर ध्वज बर्मा के राष्ट्रीय सम्मान का पारंपरिक प्रतीक है।
1988 के क्रांतिकारियों की कविताओं की वेबसाइट से साभार, जिसमे सुरक्षा कारणों से कवि का नाम उजागर नहीं किया गया है...
तुम किस से करते हो प्यार?
सैनिकों
तुम पैदा हुए थे
अपनी माँ के कोख से
या फिर तानाशाह के गर्भ से???
सैनिकों
तुम्हे सचमुच कौन करता है प्यार?
तुम्हारी माँ?
या वो तानाशाह?
किसी को चाहिए सौंदर्य
किसी को चाहिए दौलत
किसी को चाहिए सत्ता...
तुम दे दो यदि सत्ता पूरी तरह
खुद में सिमटे हुए एक इंसान के हाथ
क्या ये होगा ठीक और मुनासिब?
यदि तानाशाह फरमान जारी कर दे
तो क्या तुम बोलने लगोगे?
क्या तुम लिखने लगोगे?
क्या तुम काम करने लगोगे?
क्या तुम चलाने लगोगे गोलियां अंधाधुंध?
भेड़ें चल देती हैं सामने जाती भेड़ों के पीछे-पीछे
बगैर जाने कि जाना कहाँ हैं..
क्या सेना भी चल पड़ेगी भेंड चाल से
पीछे पीछे तानाशाह के
बंद किये किये अपनी दोनों आँखें?
या सोच-समझ कर तार्किक ढंग से
बनाएगी अपना रास्ता?
झमाझम बरसते पानी में
एक लड़की प्रवेश करती है कैम्पस में
पहने हुए लाल..रक्त की तरह दमकता हुआ लाल
पर नहीं दिख पा रही है उसकी पूरी-पूरी शक्ल
बहुत जल्दी जल्दी वो चलती जा रही है
तेज कदमों से...
अब, वो दिख रही है कुछ पास
पहनावा भी दिख रहा है साफ़-साफ़
लाल रंग उसे पसंद ही नहीं है
बल्कि वो लिपटी हुई है लाल रक्त से
और जुलाई की मूसलाधार बारिश भी धो नहीं पा रही है
उसका लाल रंग...
वो दौड़ने लगी अब
किसी को ढूंदती हुई जैसे
शायद किसी प्रेमी को
जुलाई की बारिश और निष्ठुर हो कर गिरने लगी
आखिर कहाँ जाए वो इस बारिश से बचने?
सोचा उसने और भाग कर आ गयी
जहाँ उसने बातें की थी अपने प्रेमी से
जहाँ उसने दोस्तों के साथ पढाई की थी
जहाँ उसने आजादी के लिए लड़ीं थी लड़ाइयाँ
वही अंत में मिल गया उसे उसका प्यार..
बरसता जा रहा है निष्ठुर पानी
एक लड़की भाग कर घुस गयी इस इमारत में
बदन पर पहने हुए रक्त..सुर्ख लाल रक्त
पर अब वो अकेली नहीं दिख रही
उसके साथ दिख रहे हैं उसके ढेर सारे साथी
और उसका प्रेमी भी
ये सब वो हैं जो मरे नहीं कभी
जुलाई की बारिश भी
उन्हें कभी धो मिटा नहीं पाई
बार बार अपना जोर आजमाती रही फिर भी नहीं
उनका रक्त यूँ ही बर्बाद होता रहा हर बार
पर न तो आजादी की दीवानगी चुकी कभी
और न ही इन्तजार ख़त्म हुआ
कभी आजादी के दिन का...
सोमवार, दिसंबर 21, 2009
क्या अब भी कोई मुझे नहीं पहुंचाएगा अपने घर?
1991 में जब उन्हें फौजी शासन ने गिरफ्तार किया तो पुलिसकर्मियों के घर से स्त्रियों ने अपने प्रिय कवि को खाना बनाकर भेजना शुरू किया. चार वर्ष की जेल के दौरान उनके आश्चर्य की सीमा न रही, जब उन्होंने जेल की दीवार पर कोयले से लिखी अपनी ही बहुचर्चित कविता पढ़ी. सिगार बुझ चुका है ...सूरज धूसर पड़ गया है. क्या अब भी कोई मुझे नहीं पहुंचाएगा अपने घर?
देश का सर्वोच्च सम्मान जिस कवि को दिया गया था, उसी ने जेल से बाहर आने के बाद सैनिक तानाशाही की प्रताड़ना से तंग आकर विदेश चले जाने का फैसला किया. अपने जीवन के आखरी बारह वर्ष इस अनूठे कवि ने अमेरिका में बिताए और अपनी आखिरी साँस भी वही ली. उनके साहित्य पर अब भी बर्मा में पाबंदी लगी हुई है. अनेक बर्मी कवियों की तरह ही तिन मोये ने भी प्रतीकों का सहारा लेकर अपनी बात कही.
अपने प्रिय देश को वे कैसे याद करते हैं इसकी एक मिसाल इस कविता में देखी जा सकती है. हमेशा की तरह हमारे लिए इस महत्वपूर्ण कवि की कविता का अनुवाद बड़े भाई यादवेन्द्र जी ने किया है. जिनका वादा है कि उनकी और महत्वपूर्ण कविताओं के साथ मैं जल्दी ही फिर हाजिर होऊंगा.
बंद दरवाजा
मेरा मन करता है
इतरा कर उडू पंछी बन कर
अपने प्रिय के आगे-पीछे
पर अफ़सोस करूँ क्या
बहेलिया निकल पड़ा है
परिंदों का शिकार करने....
मेरा मन करता है
लह-लह खिल पडूं
रंग-बिरंगा पुष्प बन कर
अपने प्रिय के आस-पास
पर अफ़सोस करूँ क्या
शातिर भौंरा निकल पड़ा है
उन्हें तहस-नहस करने
मेरा मन करता है
फिरकुं नयी पत्ती बन कर
अपने प्रिय की आँखों के सामने
पर अफ़सोस
करूँ क्या तेज अंधड़ पिल पड़ी है
सब कुछ रोंद डालने को...
मेरा मन करता है डुबो दूँ
प्रखर चाँद बन कर
चांदनी में अपने प्रिय को
पर अफ़सोस करूँ क्या
आज निष्ठुर धरती लगाने लगी है
उसी पर ग्रहण ...
पर कुछ भी जुगत करके
यदि पहुँच भी जाऊं अपने प्रिय के दर
अफ़सोस उढ़का हुआ है उसका दरवाजा
और नदारद है रौशनी भी वहां से...
शुक्रवार, दिसंबर 18, 2009
यारब! ज़माना मुझ को मिटाता है किस लिए
लौह-ए-जहाँ पे हर्फ़-ए-मुकर्रर नहीं हूँ मैं
हद चाहिये सज़ा में उक़ूबत के वास्ते
आख़िर गुनहगार हूँ, काफ़िर नहीं हूँ मैं
किस वास्ते अज़ीज़ नहीं जानते मुझे
लाल-ओ-ज़ुमरूद-ओ-ज़र-ओ-गौहर नहीं हूँ मैं
रखते हो तुम क़दम मेरी आँखों से क्यूं दरेग़
रुतबे में महव-ओ-माह से कमतर नहीं हूँ मैं
करते हो मुझको मना-ए-क़दमबोस किस लिए
क्या आस्माँ के भी बराबर नहीं हूँ मैं
'ग़ालिब' वज़ीफ़ाख्वार हो, दो शाह को दुआ
वो दिन गए कि कहते थे, नौकर नहीं हूं मैं
गुरुवार, दिसंबर 17, 2009
आप कितना जानते हैं पंजाब और पंजाबियों को?
दोनों पंजाब की भाषा एक है, संस्कृति एक है, खान-पान एक है मगर धर्म, मुल्ला-मौलवी और ज्ञानियों ने ऐसी दीवार खड़ी कर दी है कि पता नहीं कब पंजाब को पंजाबीपन का संपूर्णता में एहसास होगा. पाकिस्तानी पंजाब में यह जानकर मुझे बहुत खुशी हुई कि देश विभाजन और धर्म परिवर्तन के बावजूद वहां के मुसलमान बिना किसी हिचक के अपना जो सरनेम लगाते हैं, वह जानकर आप एक पल को हैरत में पड़ जाएंगे।
पाकिस्तानी पंजाब के मुसलमानों का जो सरनेम मैंने सुना उनमें से कुछ सरनेम देखिए- रंधावा, साही, दुग्गल, सेठी, सूरी- बाजवा, सहगल, बग्गा, भट्टी, संधू, टिवाणा, वाही, पुरी, वोहरा, कोहली, बख्शी, मथारू, भोगल, विर्क, विर्दी, हांडा, सिद्धू, ग्रेवाल, चीमा, देओल, ओबेराय, टंडन, मल्होत्रा, मेहरा, गुजराल, सरना, चोपड़ा, खन्ना.
यानी शायद ही कोई सरनेम बचा हो जो आपने भारत में सुना हो वह यहां न मिले। अंतर बस इतना है कि इस सरनेम से पहले नाम किसी इमरान, इरफान या सलमान होता है.
लाहौर में जितनी पंजाबियत बची है वह शायद भारतीय पंजाब के किसी भी शहर में नहीं. लाहौर के गद्दाफी स्टेडियम में शेरे-पंजाब कुश्ती के दंगल में जितनी भारी भीड़ मैंने देखी वह कुश्ती के प्रति पंजाब की स्वाभाविक पारंपरिक उत्साह को साफ बयान कर रहा था. भारतीय पंजाब में यह परंपरा अब धीरे-धीरे मिट रही है. इधर के अधिकांश गांवों के लोग कनाडा और अमेरिकी चले गए हैं और उनकी पत्नियां उनकी राह देखती रहती हैं. किसी-किसी गांव में आप जवान लड़के देखने को तरस जाएंगे- जहां तक नजर जाएगी सिर्फ औरतें ही औरतें नजर आएंगी. यह जानकर दुख हुआ कि पाकिस्तानी पंजाब के गांवों की हालत भी बहुत कुछ इसी तरह की है. लड़के लाहौर, इस्लामाबाद भाग जाते हैं या सऊदी अरब. रह जाती हैं बस औरतें.
यह भी अजीब है कि सबसे ज्यादा भारत विरोधी भावनाएं पाकिस्तान के पंजाबियों में ही है, सबसे अधिक मांसाहारी, शराब के शौकीन और कट्टर पंजाबी मुसलामान ही है. इसके बावजूद वे बेहद यारबाश, सरल और पंजाबियत के प्रेमी हैं. हालांकि सेना और आईएसआई में पचहत्तर फीसदी लोग पंजाब सूबे से ही हैं.
काश, कभी वो दिन आता जब दोनों एक-दूसरे को उसी तरह देखते-सुनते और सुख-दुख में शरीक होते जैसे एकीकृत पंजाब में होते थे।
बुधवार, दिसंबर 16, 2009
बोधिवृक्ष पर वीर्यपात करता हुआ...बिहार
कुछ तथ्यों पर गौर फरमाने से सुशासन बाबू के बिहार के विकास की असलियत सामने आ जाती है।
वर्ष-2004—2005—4.47 प्रतिशत इकोनोमी ग्रोथ कृषि के क्षेत्र में था। जबकि 2005-2006—3.66प्रतिशत। 2006—2007 में यह गिरकर 1.62 प्रतिशत रह गया है।
सूचना के अधिकार के तहत मिली जानकारी के मुताबिक पिछले चार सालों में सुशासन बाबू की सरकार ने पचास करोड़ रूपये का प्रिंट मीडिया को और तीन करोड़ रूपये का इलेक्ट्रानिक मीडिया को विज्ञापन जारी किया है। अन्य माध्यमों को जारी किए गए विज्ञापनों को जोड़ दें, तो लगभग सौ करोड़ रूपये सरकार के उपलब्धियों की चर्चा के लिए घोषित तौर पर विज्ञापन पर खर्च किए गए हैं. अघोषित तौर पर मीडिया मैनेजमैंट के लिए जो-जो धतकरम किए जा रहे हैं, उसकी तो खैर यहां चर्चा ही नहीं की गई है।
सोचने की बात यह है कि जिस प्रदेश की आधी से अधिक आबादी की औसत आमदानी रोजाना बीस रुपये से कम है, वहां सरकार प्रचार-प्रसार पर सौ करोड़ रुपये खर्च करती है। ...और अभी तो चुनाव को एक साल बाकी है और बाकी है चुनाव से पहले जारी होने वाले विज्ञापनों की लंबी कड़ी।
कृष्णमोहन झा की एक कविता, जिसका शीर्षक है बिहार, आप गौर फरमाएं-
गंगा की जीभ पर
लगातार गिरता हुआ
न्याय का मवाद
बोधिवृक्ष पर वीर्यपात करता हुआ...
(आंकड़े तूती की आवाज ब्लाग से साभार)
शुक्रवार, दिसंबर 11, 2009
भक्तिकाल या अनंतकाल वाया उत्तरकाल
यह कोई लोकसभा नहीं है जहां प्रश्नकाल होता हो और प्रश्नकाल जब फलप्रद-काल न हो तो वह अनुपस्थित-काल में बदल जाए। अजीब बात है कि साहित्यिक इतिहासों में भक्तिकाल को इतिहास के मध्यकाल से जोड़कर देखा जाता है, जबकि यह ऐसा काल है जो आज पहले से कहीं अधिक प्रतिबद्धता और निष्ठा से जारी है। सब कुछ सीखा हमने न सीखी होशियारी की तरह यदि आप ऐसे ही गीत गाते रहे तो रियल लाइफ में जीना मुहाल हो जाएगा। क्योंकि जीने के लिए चाहिए होती है भक्ति-प्रदर्शन और इसी के प्रदर्शन से मिलती से जीवन में शुभ-लाभ। भक्ति से पत्नी से लेकर बॉस तक प्रसन्न रहते हैं और शुभ-लाभ, योग-क्षेम मिलती रहती है। भक्ति से ही शक्ति मिलती है और शक्ति के अनुपात से आदर मिलता है। सो, शक्ति कुछ लोग भक्ति से तो कुछ लोग छीनकर प्राप्त करते हैं।
न जाने क्यों मुझे जीवन के हर कदम पर, हर दिन बार-बार आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी याद आते हैं। उनकी लिखी पंक्तियां याद आती हैं और याद आता है कुटज जो सिर उठाकर जीता है...पर भगवान को उठा हुआ सिर पसंद है? भक्तिकाल के आराधकों को शायद पता हो।
गुरुवार, दिसंबर 10, 2009
बुधवार, दिसंबर 09, 2009
कभी इस नज़र से देखिये पाकिस्तान को
जीता भी जा चुका इसे हारा भी जा चुका
वसुधा के ताज़ा अंक में उर्दू के मशहूर शायर शहरयार द्वारा चुनी गईं कुछ पाकिस्तानी कविताएं प्रकाशित हुई हैं। यहां पेश है मेरे मित्र काशिफ़ हुसैन ग़ायर की दो ग़ज़लें। वे पाकिस्तान के जाने-माने शायर हैं और भारत के प्रति उनके मन में गहरा सम्मान है।
एक
वो रात जा चुकी वो सितारा भी जा चुका
आया नहीं जो दिन वो गुज़ारा भी जा चुका
इस पार हम खड़े हैं अभी तक और उस तरफ़
लहरों के साथ-साथ किनारा भी जा चुका
दुख है मलाल है वही पहला सा हाल है
जाने को उस गली में दुबारा भी जा चुका
क्या जाते किस ख्याल में उम्रे खाँ गई
हाथों से जिंदगी का खि़सारा भी जा चुका
काशिफ हुसैन छोडिय़े अब जिन्दगी का खेल
जीता भी जा चुका इसे हारा भी जा चुका
दो
हाल पूछा न करे हाथ मिलाया न करे
मैं इसी धूप में खुश हूँ कोई साया न करे
मैं भी आखिर हूँ इसी दश्त का रहने वाला
कैसे मजनूं से कहूं खाक उड़ाया न करे
आईना मेरे शबो रोज़ से वाकिफ़ ही नहीं
कौन हूँ, क्या हूँ? मुझे याद दिलाया न करे
ऐन मुमकिन है चली जाय समाअत मेरी
दिल से कहिये कि बहुत शोर मचाया न करे
मुझ से रस्तों का बिछडऩा नहीं देखा जाता
मुझसे मिलने वो किसी मोड़ पे आया न करे
शुक्रवार, दिसंबर 04, 2009
कुछ पता चला बापजी और भैनजी का?
कल मेरे दफ्तर की एक सुंदर-सी कन्या संवाददाता को इस बात से बड़ी कोफ्त हुई कि कुछ मनचले लड़के, जो रास्ते चलती लड़कियों को छेड़ रहे थे, उन पर फब्तियां कस रहे थे, वे मनचले लड़के उन्हें देखते ही बोले, “यार ये तो आंटी हैं।“ ... और ये कहकर ल़ड़के आगे बढ़ गए। यह बात उस कन्या संवाददाता को बेहद नागवार गुजरी। उन्हें लगा कि क्या वे आंटी दिखती हैं? अरे वे तो अभी महज उन्नीस की हैं (आप जानते हैं शरीफ लोग लड़कियों से उम्र नहीं पूछते)। अरे, अब वे छेड़नीय भी नहीं रहीं? वे तो बाकायदा प्रियदर्शनी हैं, सो दर्शनीय तो हैं ही (उन्हें लगता है)। वे ऐसी अछेड़नीय तो खैर नहीं ही हैं। वे इसी बात से दुखी हो गईं कि लड़कों ने उन्हें छेड़ने के लायक भी नहीं समझा। अजीब है भई, लड़की को कोई छेड़ दे तो पुलिस और अभिभावक दुखी हो जाते हैं और न छेड़े तो लड़की दुखी हो जाती हैं।
कभी-कभी मुझे लगता है कि हरिशंकर परसाई को अभी कुछ दिनों तक जीना चाहिए था और वह भी अंतकाल दिल्ली में जरूर गुजारना चाहिए था. क्या पता कोई छेड़ेच्छुक युवती उन्हें पसंद कर लेतीं। सबसे बड़ी बात यह कि यहां की उर्वरा भूमि में उनकी व्यंग्य-फसल ज्यादा लहलहातीं और वे लहक-लहक कर हिंदी साहित्य को नए-नए मुद्दों पर लहकाने का कमाल दिखाते। ऐसा कमाल कि श्रीराम सेना, बजरंग दल वगैरह को कभी खाली नहीं बैठना पड़ता। तख्ती वालों की कितनी तख्तियां बिकतीं, कितना शाकाहारी विरोध प्रदर्शन होता और दिल्ली की जनता को एक लेखक की रचना के प्रताप से इस जाड़े में बहुत ताप मिलता। पर हाय अकेला छोड़ गए, बिल्कुल अकेले-अकेले।
एक बात आपके कान में मैं धीरे से कहता हूं, किसी से कहिएगा नहीं। पिछले दिनों मुझे पता चला है कि मैं वयोवृद्ध हूं। मैंने अपने कुंवारे दोस्तो को कहा, हठधर्मियों रहो कुंवारे। तुम अभी तक कुंवारे के कुंवारे ही रहे और इधर मैं वयोवृद्ध तक बन बैठा। अब ये मत कहिए कि आपकी उम्र तो अभी बत्तीस साल है। आप कैसे वयोवृद्ध हो गए? तो जनाब, बात यह है कि मुझसे दस-बारह साल उम्र में बड़े कंडक्टर और आटोरिक्शा वाले क्वीन विक्टोरिया की तरह नाइटहुट देने के अंदाज में मुझे अंकल का खिताब देते हैं। मैं इसे बखुशी ग्रहण करता हूं। पता नहीं वे अंकल शब्द का मतलब कितना जानते हैं, पर वे चतुर-सुजान इतना तो जरूर जानते हैं कि अंकल कहो तो साहब लोगों की बांछें खिल जाती हैं। हालांकि ये और बात है कि मुझे आज तक नहीं पता चला कि बांछें होती कहां हैं औऱ कैसे खिलती हैं या खिलखिलाती हैं। तो साहब, आटोवाले बड़े प्यार से मेरा अंकलीकरण संस्कार कर चुके हैं-कुछ-कुछ नामकरण संस्कार की तरह। यकीन मानिए, मुझे बड़ा मजा आता है अंकल सुन-सुनकर। भोपाल में तो तमाम लोग मुझे कुछ इस तरह अंकल कहते थे जैसे मैं पैदाइशी अंकल हूं। जब अंकली सूरत ही हो तो कोई क्या करे-यह कहकर इस नश्वर शरीर में वास कर रहे हृदय को मैं विदारक स्थिति में जाने से बचा लेता हूं। इस भतीजामय में संसार में यदि केशवदास रहते तो शायद वे भी चंद्रवदनियों के बाबा कहि-कहि जाने पर नाराज न होते। क्योंकि नहीं छेड़े जाने की वजह से मृगलोचनियां तो पहले से परेशान चल रही हैं।
पहले-पहल जब मैं दिल्ली आया था, तो अक्सर कानों में भैणजी की कर्णप्रिय आवाज जाती थी। एक मित्र ने बताया कि ये कहना तो चाहते हैं बहन जी, पर मातृभाषिक चाशनी में पगी जीभ से बहन जी, भैणजी बनकर स्वर-ग्रंथि से बाहर आती हैं। पर अब उदारीकरण के बाद से तो भैया जब भैणजी को भैणजी कहो तो वे एकदम से गुस्सा हो जाती हैं। उन्हें अब भैणजी नहीं, भाभी जी कहलाने में गर्वानुभूति होती है। दिल्ली के इस विकास-काल में भैणजी को भाभी जी बनते देखना कितना सुखद है। यकीन न हो तो आप नए उम्र के किसी सब्जी वाले, आटो वाले से पूछकर देख लें। ज्यादा टैम न हो तो गली के नुक्कड़ वाले परचूनिए से ही पूछ लें।
इस सर्व-भाभी युग में बेटों से मुझे ग्यारह हजार वोल्ट का झटका लगा। सरोजिनी नगर मार्केट गया था, स्वेटर खरीदने। बीस-बाइस साल का लड़का मालिक की गद्दी पर बैठा था। मैंने जब स्वेटर मांगा तो उसने पचास साल के सेल्समैन से कहा, बेटे सर को फटाफट स्वेटर दिखा। अरे बेटे, ये वाली नहीं, वो जो कल माल आया है उसमें से दिखा। मैं स्वेटर देखने की जगह उजबक की तरह एक बार काउंटर पर बैठे लड़के को देखूं, तो दूसरी बार उस पचास साला सेल्समैन को। अजीब झटका लगा मुझे। यह लड़का कितने सहज भाव से बाप की उम्र के आदमी को बेटा कह रहा है और वह आदमी भी कितनी सहजता से उसको बाप की उम्र का मान रहा है। मैंने सैल्समैन की ओर इशारा करके उस बाप जी से कहा, भाई साहब, क्या आपके बच्चे इन्हीं के उम्र के हैं? अरे वाह, आपकी तो उम्र का पता ही नहीं चलता है? बहुत करीने से आपने अपनी उम्र छिपाया है। लड़का मुझे उजबक की तरह देखने लगा। उसे लगा कि मैं शायद अभी-अभी चिड़ियाघर से सीधे सरोजिनी नगर में गिरा हूं। उसका बेटा, स्वेटरों की पहाड़ निकाल कर रख चुका था। मैंने खोदकर एक चुहिया जैसा स्वेटर निकाला और जल्दी-जल्दी पैसे चुकाकर भागा।
बुधवार, दिसंबर 02, 2009
जोश साहिब अपनी बीवी से बहुत डरते थे
एक बार जोश साहिब की वह महबूबा, जिसे समंदर में डूबने से बचाने के लिए तैरना नहीं जानते हुए भी मुंबई में जोश साहिब पानी में कूद पड़े थे, दिल्ली आई। जोश साहिब ने चार-पांच दिन उसके साथ गुज़ारने का प्रोग्राम बना लिया। दोस्तों ने उनके लिए शाहदरा में रहने की व्यवस्था कर दी तथा घूमने के लिए एक मोटरकार की भी। जोश साहिब ने अपनी बीवी से दो-एक मुशायरों में जाने का बहाना किया और घर से शाहदरा अपनी महबूबा के पास आ गए। एक शाम वह अपनी महबूबा को लेकर नई दिल्ली में घूम रहे थे कि उनकी बेग़म ने उन्हें देख लिया।
वह रुके नहीं, गाड़ी भगाकर ले गए। कुछ देर बाद वह अपने दोस्त कुंवर महिन्दर सिंह बेदी के पास पहुंचे, उन्हें सारी बात बताई और कहा, ‘जैसे भी हो, मुझे बचाओ वरना बेग़म मुझे ज़िंदा ही दीवार में चिनवा देगी।’ बेदी साहिब अगली सुबह ही जोश साहिब के घर गए, तो बेगम जोश ने कहा, ‘वह मरदूर मुझसे मुशायरे का बहाना करके गया है, लेकिन उस मुंबई वाली चुड़ेल को लेकर यहीं दिल्ली में घूम रहा है। कल कनाट प्लेस में अपनी आंखों से मैंने उन्हें देखा है।’ बेदी साहिब ने कहा, ‘भाभी मेरी तरह आप को भी धोखा हुआ है।
कल मैंने भी उन्हें कनाट प्लेस में देखा था, लेकिन क़रीब जाने पर पता चला कि वह जोश साहिब की शक्ल से मिलता-जुलता कोई दूसरा व्यक्ति है।’ बेगम जोश को कई तरह की बातों से बेदी साहिब ने विश्वास दिलाने की कोशिश की। वह शांत तो हो गईं, लेकिन उनका शक़ दूर नहीं हुआ। लौटकर बेदी साहिब ने जोश साहिब को सारी कहानी सुनाई तथा कहा कि बेगम साहिबा की पूरी तस्सली के लिए कोई और ड्रामा भी खेलना पड़ेगा। एक यह कि जिन दो मुशायरों में जोश साहिब ने जाना था, उनमें से एक कैंसिल हो गया है तथा वह कल दिल्ली लौट रहे हैं।
ऐसी झूठी तार बेगम जोश को भिजवा दी गई। दूसरे दीवान सिंह म़फ्तून साहिब अपने अख़बार रियासत की साठ-सत्तर प्रतियां एक बड़े रेशमी रूमाल में लपेटकर बेगम जोश से मिलेंगे और कहेंगे कि मैं आपका शक़ दूर करने के लिए धार्मिक पुस्तक साथ लाया हूं। मैं इस पवित्र पुस्तक की क़सम खाकर कहता हूं कि जोश साहिब अपनी किसी महबूबा के साथ दिल्ली में नहीं हैं, बल्कि मुशायरें में गए हैं। इस स्कीम के तहत म़फ्तून ने बेगम जोश के सामने ठीक ऐसा ही किया। झूठी क़सम खाई और अपने दोस्त को उसकी बेगम के कहर से बचाया।
सौजन्यः डॉ.केवल धीर
किससे डरते हैं पाकिस्तानी फौजी शासक?
बुधवार, नवंबर 25, 2009
किसकी बात सच है यह कैसे पता चलेगा?
अजीब गड़बड़झाला है. पिछले दो दिनों से हर अखबार इंडियन रीडरशिप सर्वे के हवाले से यह दावा कर रहा है कि वह नंबर वन है। जैसे चुनाव में हर नेता दावा करता है कि वह भारी मतों से जीत रहा है। मगर जब नतीजा आता है तो पता चलता है कि उसकी बीवी ने भी उसे वोट नहीं दिया और जमानत तक जब्त हो गई. आपको नहीं लगता कि एक नंबर के इस खेल में दो नंबर का मामला साफ है यानी एक अलावा बाकी सब साफ झूठ बोल रहे हैं और वह भी शान से। पाठक बिचारा तो हिसाब लगाने से रहा कि कौन किस नंबर पर विराज रहा है।
नंगों के शहर में जबसे लौंड्री की दुकान खुली है, बेचारा दुकानदार झींक रहा है-कभी खुद पर कभी शहर पर। हर अखबार कह रहा है कि वह नंबर वन है, मगर विज्ञापनदाता बाबू आज भी मेहरबान इंगरेजी पर ही हैं। पाठक कम, कमाई ज्यादा तो इंगरेजी के ही नाम है। अब आप अपने नंबर वन का पुंगी बनाकर जहां मर्जी वहां उपयोग करें।
एक मित्र ने कहा कि सूचना के अधिकार के लिए अभियान चलाते हुए हलकान हुए जा रहे अखबारों से पूछा जाना चाहिए कि क्या वे अपने यहां इस कानून को लागू करेंगे? क्या वे बताएंगे कि कौन-सी खबर बिकी हुई है और कौन-सी अनबिकी? क्या वे यह बताएंगे कि कौन-सी खबर विज्ञापनदाता के दबाव में तोड़ी-मरोड़ी हुई है और कौन-सी सरकार को खुश करने के लिए? जाहिर है नहीं। वे यह कानून कतई लागू नहीं करेंगे। तब वे क्यों पर उपदेश कुशल बहुतेरे की रट लगाए जा रहे हैं? जाहिर है, उपदेश सिर्फ दूसरों को देने के लिए होता है। सो भैया ये अखबार भी उपदेश दूसरों को दिए जा रहे हैं। ले लो भई, दो-दो टके का उपदेश (अखबार)-सुबह-सुबह बांचो चाय की दुकान पर, नाई की दुकान पर पेड खबरों का विशेषणकोश। धन्य हैं हमारे हाथी ब्रांड गोयबल्सी अखबार.
मंगलवार, नवंबर 24, 2009
सोचा है नत हो बार-बार
आजकल सचिन तेंदुलकर को लेकर जो घमासान शिव सेना ने मचा रखा है और जो बात इनसे उभर कर आ रही है वो है कि राजनीति से इतर किसी और क्षेत्र में शिखर छूने वाले किसी व्यक्ति कि देशभक्ति या अपने समाज के प्रति निष्ठा को आँकने का पैमाना क्या होना चाहिए. इसी सन्दर्भ में मुझे अमेरिका के महान मुक्केबाज मुहम्मद अली के अदम्य साहस और राजनैतिक धार्मिक निष्ठा का एक नायाब उदाहरण याद आता है जब उन्होंने विएतनाम युद्ध के चरमोत्कर्ष पर अमेरिका में प्रचलित अनिवार्य सैनिक तैनाती को चुनौती देते हुए विएतनाम जाकर लड़ने से मना कर दिया था. सजा के तौर पर इस विश्व चैंपियन से उसकी उपाधि छीन ली गई। पांच वर्ष कि सजा सुनाई गई और अमेरिका में रहते हुए अमेरिकी नीतियों के प्रति निष्ठा पर सवाल खड़े किये गए. इन सब अपमानों से विचलित हुए बिना मुहम्मद अली ने अमेरिकी सेना की नीतियों की जम कर आलोचना की. उन्होंने इस फैसले को क़ानूनी तौर पर चुनौती दी और न्यायलय ने उनके पक्ष में फैसला दिया. दो सौ से ज्यादा कॉलेजों और विश्वविद्यालय कैंपस में उन्होंने जा-जा कर नौजवानों के सामने व्याख्यान दिए. कहा जाता है की तीन सालों तक वे मुक्केबाजी के ख़िताब के लिए रिंग में नहीं उतर सके,एक करोड़ डालर से ज्यादा की राशि से हाथ धोया पर अपने फैसले से डिगे नहीं. आज अमेरिका के इराक और अफगानिस्तान युद्ध की पृष्ठभूमि में मुहम्मद अली के इस फैसले को देखा जाए, तो उनके साहस से अकूत बल मिलेगा.1999 में छपी माइक मर्कुसी की किताब से उनका एक वक्तव्य उधृत कर रहा हूँ.
"मैं वियतनाम जाकर उसके खिलाफ लड़ने वाला बिलकुल नहीं हूँ. वे(सेना) मेरे पास आकर क्यों कहें की मैं वर्दी पहन लूँ और अपनी धरती से दस हजार मील दूर जाकर उनपर बम गिराऊं और विएतनाम के भूरे लोगों पर गोलियां बरसाऊं जब कि यही हमारे देश में कथित नीग्रो लोगो के साथ कुत्तों जैसा बर्ताव किया जाता है. अब समय आ गया है जब ये सब बंद किया जाना चाहिए. मुझे बार-बार चेताया गया कि मेरे सेना की अनिवार्य तैनाती से मना करने के फैसले से करोडों डालर का नुकसान उठाना पड़ेगा.पर पहले भी अपनी बात मैंने साफ-साफ कही है और अब भी बार-बार ये दोहराता रहूँगा. मेरे अपने लोगों के दुश्मन कहीं बाहर नहीं इसी मुल्क में रहते है. मै महज एक कठपुतली या औजार बनकर अपने धर्म (इस्लाम) को अपमानित नहीं करूँगा, न ही अपने लोगो को और न खुद को ही कि उन्हीं लोगों को गुलाम बनाने में मदद करूँ, जो अपने लिए न्याय,आजादी और बराबरी कि लड़ाई लड़ रहे हैं.यदि मुझे लगेगा कि विएतनाम युद्ध हमारे २.२ करोड़ लोगो के लिए आजादी और बराबरी कि सौगात लेकर आएगा, तो उन्हें मुझे फ़ौज में ड्राफ्ट करने कि जरुरत नहीं पड़ेगी.मैं खुद जाकर कल ही अपनी सैनिक तैनाती सुनिश्चित कर लूँगा. अपनी मान्यताओं पर दृढ़तापूर्वक खड़े होने से मेरे कुछ खोने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता. जरुरत पड़ी तो मैं जेल जाने को तैयार हूँ-हम तो पिछले चार सौ सालों से जेल में सड़ रहे हैं. मुझसे उम्मीद कि जाती है कि देश से बाहर जाऊँ और दक्षिण विएतनाम की आजादी में मदद करूँ. पर विडंबना ये है कि इस देश के अन्दर हमारे लोगो पर ही बर्बर अत्याचार ढाए जा रहे हैं. नारकीय अत्याचार...आपमें से जो भी ये सोचता है कि मैं बहुत आर्थिक नुकसान के दौर से गुजर रहा हूँ, उन सब से मैं ये कहना चाहता हूँ कि मुझे सब कुछ हासिल हो गया ...मेरे पास है मन की शांति, निर्विकार, स्वच्छ और आजाद अन्तःकरण और सबसे बड़ी बात कि मेरा मन गर्व से ओत-प्रोत है. मैं खुश होकर सुबह बिस्तर से उठता हूँ,रात में ख़ुशी-ख़ुशी सोने जाता हूँ...और यदि मुझे जेल जाना पड़ा तो उतनी ही ख़ुशी के साथ मैं जेल चला जाऊंगा."
मुहम्मद अली की बेटी हाना अली ने अपने पिता के ऊपर एक किताब लिखी है-मोर देन अ हीरो:मुहम्मद अलिस लाइफ लेस्सोन्स प्रेजेंटेंड थ्रू हिज दोटेर्स आईस. इसमें एक जगह उसने लिखा है कि अपने पिता को उसने केवल दो बार मुक्केबाजी के रिंग में क्रोध से आग-बबूला होते हुए देखा. विएतनाम युद्ध के बाद अपना पक्ष रखने के कारण सजा भुगतने के बाद जब अली जोए फ़्रज़िएर से लड़ने आए तो सैनिक तैनाती में विएतनाम जाकर लौटे फ़्रज़िएर को वे बार-बार अंकल टॉम कहने लगे और उसपर उन्मादी की तरह आक्रमण करने लगे, पर बाद में जब उनको उस मैच की फिल्म दिखाई गई और उसमें उन्होंने देखा कि फ़्रज़िएर के बच्चों को इस मैच के कारण कैसे-कैसे ताने सुनने पड़े तो मुहम्मद अली की ऑंखें भर आईं.
प्रस्तुति और आलेख- यादवेन्द्र
सोमवार, नवंबर 23, 2009
चुप रहने में कितनी समझदारी है
सोचा था ख्वाब का दर पर कविता, कहानी, साहित्य आदि से संबंधित सामग्री ही दूंगा और कोशिश रहेगी कि इन्हीं चीजों पर आधारित ब्लाग के रूप में इस ब्लाग को याद किया जाए। मगर जब देश की राजनीति शातिर ढंग से चीजों को गड्ड-मड्ड करने और कथित निश्छलता से देश की जनता के सामने सच नहीं आने देने के प्रति एकजुट हो, तब चुप रहना और कविता-कहानी करते रहना मुझे बेमानी ही नहीं, लगभग अश्लील लगता है। कहना न होगा कि इवान क्लीमा और अरुंधति राय जैसी शख्सियत को इसी चीज ने गल्प की दुनिया से सीधे हस्तक्षेप की दुनिया में आने और झूठ को बेनकाब करने के लिए उत्प्रेरित किया होगा।
लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट को लेकर बन रही खबर से खेलने में मस्त इलेक्ट्रानिक मीडिया गन्ना किसानों के मुद्दे पर बनी विपक्ष की एकजुटता भूल गई या किसी ने उसे भूल जाने को कहा? या इस भूलने की बड़ी कीमत अदा की गई? रघुवीर सहाय ने ऐसे ही नहीं लिखा था-लोग भूल गए हैं। हम भूलने में इतने माहिर हैं कि बहुत जल्दी चीजों को भूल जाते हैं।
जब चीनी की कीमतें आसमान छू रही हों, तब एक क्विंटल तैयार गन्ने की कीमत सौ डेढ़ सौ रूपये होनी चाहिए? जब आलू बाजार में बीस-पच्चीस रूपये किलो मिल रहा हो तब किसानों को महज एक-दो रूपये कीमत देना जायज है? यकीन न हो तो दिल्ली के आजादपुर सब्जी मंडी द्वारा जारी सब्जियों की थोक कीमत देखें और अंदाजा लगाएं कि किसानों को किस दर पर अपनी फसल बेचकर लौटना पड़ा होगा। मैं जानता हूं कि एक क्विंटल गन्ना के उत्पादन में किसानों का कितना श्रम और धन लगता है। मगर यह मुद्दा चला गया पीछे। क्योंकि किसानों के लिए चैंबर आफ कामर्स या एसोचैम जैसा कोई प्रेशर ग्रुप नहीं है। वह चुनाव में वोट तो दे सकता है लेकिन चुनाव लड़ने के लिए नोटों की गड्डी नहीं दे सकता। सरकार को बना-बिगाड़ नहीं सकता। मगर रतन टाटा या अंबानी बंधु सरकार को गिरा भले न पाएं पर जब तब हिलाते तो रहते हैं। कभी सिंगूर तो कभी साणंद के बहाने सरकारों पर सीधे हमला करते ही रहते हैं। खैर...
जब संचार मंत्री डी राजा के बारे में यह खबर आने लगी कि वे महा स्पेक्ट्रम घोटाले में शामिल हैं तो गेंद तत्काल प्रणव मुखर्जी के पाले में देकर जिन्न को मधु कोड़ा के पीछे लगा दिया गया. क्या कांग्रेस समर्थित कोड़ा बगैर कांग्रेस और राजद के समर्थन के एक दिन भी सत्ता में बने रह सकते थे? क्या इन बड़े लीडरान को इन चीजों की जानकारी नहीं रही होगी? राजनीति को जरा भी अंदर से जानने वाले लोग इस चीज पर यकीन नहीं करेंगे कि कांग्रेस और लालू प्रसाद की राजद जैसी पार्टी को कोड़ा की करतूतों का पहले से अंदाजा बिल्कुल नहीं रहा होगा? लेकिन कोड़ा की करतूतों का खुलासा ऐसे वक्त पर किया गया जब सरदार मनमोहन सिंह अपनी दूसरी पारी की सरकार में महा घोटाले में संलिप्त संदिग्ध संचार मंत्री के बारे में घोटाले की खबर सुन रहे थे। अजीब संयोग यह है कि मीडिया को आज इस खबर के फॉलो अप की कोई जरूरत महसूस नहीं होती। हो भी क्यों क्योंकि विज्ञापनदाता समाज से भला वैर कौन मोल ले? आखिरकार दो रूपल्ली में अखबार पढ़ने वाले पाठकों के भरोसे तो अखबार नहीं चलता, न सौ डेढ़ सौ केबल वाले को देकर घर सौ डेढ़ सौ चैनल देखने दर्शकों के भरोसे न्यूज चैनल। न ये टीआरपी दिलाऊ हैं न विज्ञापन दिलाऊ.
दूसरी ओर लगता है अब महंगाई जैसे कोई मुद्दा ही नहीं रहा। इस पर बात करना भी मानो भयंकर पिछड़ेपन की निशानी बन गया है। सेठ, सरकार और दलाल मालामाल हो रहे हैं। खबर है कि मीडिया को फिलवक्त विज्ञापनों को कोई टोटा नहीं है। मगर मीडिया में काम करने वाले हम जैसे लोग जानते हैं कि दूसरों की खबर लिखने वाले हम लोग स्वयं कम बड़ी खबर नहीं हैं। अनुबंध और बॉस की भृकुटियों पर निर्भर नौकरी में पल-पल जीता पत्रकार किन स्थितियों में जीता है यह जनता को शायद मालूम नहीं हो, पर लिब्रहान जैसे मुद्दे पर नेताओं को घेरने वाली मीडिया के नीति-नियंताओं को सब पता है। अच्छी तरह पता है। लेकिन जिनको मालूम है वे अपनी रोटी सुरक्षित देखकर चुनी हुई चुप्पी में अपनी भलाई समझते हैं। हैरत होती है कि बहुतेरे लोग चुप हैं। चुपचाप सब देख रहे हैं। चुपचाप सारा खेल चल रहा है। हमारे देश के भद्रजन जानते हैं कि चुप रहने में कितनी समझदारी है।
मंगलवार, नवंबर 17, 2009
बार बार आपका पता पूछते हैं...
विजी थुकुल की कविताओं के बाद एक छोटी कविता इस जन कवि की मुश्किलों में पली-बढ़ी बेटी फितरी न्गंथी वानी (1989 में पैदा हुई)जिसे जून 2009 में प्रकाशित उसके पहले काव्य-संकलन से लिया गया है। संकलन का नाम है AFTER MY FATHER DISAPPEARED जिसमे अपनी भाषा के साथ साथ उसका अंग्रेजी अनुवाद भी दिया हुआ है. एक क्रन्तिकारी कवि की बेटी अपने अनुपस्थित पिता को कितनी शिद्दत से याद करती है, इसका जीवंत दस्तावेज है ये कविता। इसे बहुत प्यार से और गहरे वात्सल्य भाव से अनूदित किया है बड़े भाई यादवेन्द्र जी ने। धन्यवाद देने की गुस्ताखी नहीं करूंगा, जिसे आजकल वे एक बदमाशी समझते हैं।
घर लौट आओ पापा
घर लौट आओ पापा
पूरा परिवार आपकी राह देख रहा है
आपके दोस्त भी बार बार आपका पता पूछते हैं...
घर लौट आओ पापा
क्या आपको पता नहीं
कि इंडोनेसिया खंड-खंड बिखरने लगा है
पानी की पाइपों में बहने लगा है कीचड़
कारखानों से जो निकल रहा है धुआं
प्रदूषित करता जा रहा है हमारी जमीन
नदियों तक पहुँच गया है कचरा
और सारे तटवर्ती इलाके हो गए हैं विषैले
हमें इस दुर्गन्ध से बचने के लिए
बंद करनी पड़ती है नाक
यह देश रो रहा है पापा
इस देश को आपकी बेहद जरुरत है..
घर लौट आओ पापा
क्या एक बार भी मेरी याद नहीं आती आपको
ये गुहार मैं लगा रही हूँ...आपकी बेटी
मैं,माँ और छोटा भाई
हम सब आपके बगैर बिलकुल अकेले पड़ गए हैं
मैं कब तक आपकी राह देखती रहूँ पापा
और प्रार्थना करती रहूँ....पापा?
इस देश की गद्दी सँभालने वालो
मुझे वापिस करो मेरे पापा...
अनुवादः यादवेन्द्र
शनिवार, नवंबर 14, 2009
दोनों कविताएं इंडोनेशिया के प्रखर क्रन्तिकारी कवि और संस्कृतिकर्मी विजी थुकुल की प्रतिनिधि और बेहद लोकप्रिय रचनाएँ हैं.१९६३ में गरीब मजदूर परिवार में जन्मे थुकुल सुहार्तो विरोधी वामपंथी आन्दोलन में शामिल हुए और ट्रेड यूनियन आन्दोलन के साथ साथ सांस्कृतिक साहित्यिक क्षेत्र में खूब मुखर और सक्रिय रहे.जीविका के लिए छोटे मोटे काम करते रहे,पत्नी सिलाई का काम करती रही.
१९९५ में एक कपडा मिल में हड़ताल का नेतृत्व करते हुए पुलिस ने उनकी एक आँख फोड़ दी,पर उनके जज्बे में कोई कमी नहीं आयी.क्रूर दमनकारी नीतियों के चलते उनको १९९६ में भूमिगत होना पड़ा.पर अप्रैल १९९८ के बाद उनसे किसी का संपर्क नहीं रहा.आशंका है कि सरकारी सेना ने उनको यातना देकर मार डाला.जैसे हमारे देश में इन्किलाब जिंदाबाद या हर जोर जुल्म के टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है जैसे जुमले प्रतिरोध आन्दोलन के प्रतीक बन गए हैं वैसे ही इंडोनेशिया में लोकतान्त्रिक प्रतिरोध आंदोलन में उनकी चेतावनी कविता याद की जाती है...
ख्वाब का दर के लिए यह यादगार काम किया है हमारे बड़े भाई यादवेन्द्र जी ने। इस ब्लाग के लिए वे नए नहीं हैं इसलिए अब उनके लिए परिचय की आवश्यकता महसूस नहीं हो रही है। वे अपना अमूल्य योगदान लगातार हमें देते रहे हैं और आशा करते हैं कि उनने सौजन्य से हमें आगे भी बहुत अच्छी-अच्छी कविताएं पढ़ने को मिलेंगी।
चेतावनी
हुक्मरान देते रहें अपना भाषण
और लोग बाग अनमने होकर लौटने लगें अपने घरों को
तो हमें समझ लेना चाहिए
कि बिखर गयी है उनकी आस और उम्मीदें
अपनी मुश्किलें बयां करते करते छुपाने लगें लोग-बाग मुंह
और पड़ने लग जाएँ उनकी आवाजें मंद
तो हुक्मरानों को हो जाना चाहिए चौकस
और आ जानी चाहिए उनमे तमीज
सामने वाले को ध्यान देकर सुनने की
जब लोग बाग न कर पायें हौसला फरियाद तक करने का
मान लो कि बात पहुँच गयी है खतरे के मुहाने तक
हुक्मरानों की दर्पोक्तियाँ और बड़बोली भी जब होने लगे स्वीकार
तो हमें मन लेना चाहिए
कि सच पर मंडराने लगे हैं विनाश के बादल
जब मशविरे भी बगैर सोचे समझे
फेंक दिए जाएँ कूडेदानों में
घोंटी जाने लगे वाणी
अचानक रोक दी जाएँ आलोचनाएँ
कभी विद्रोह का नाम दे कर
तो कभी सुरक्षा भंग होने के अंदेशे से
ऐसे हाल में फिर
बचता है एक ही शब्द
प्रतिरोध
हाँ साथी ,केवल प्रतिरोध..
बस एक दिन कामरेड
एक कामरेड साथ लाता है तीन कामरेड
और हर एक पांच-पांच
सब मिलकर हो जाते हैं
कितने कामरेड?
एक कामरेड साथ लाता है तीन कामरेड
और हर एक पांच पांच
मान लो हम बन जाएँ एक फैक्ट्री....
फिर क्या होगा कामरेड?
मान लो हम एक जान हों कामरेड
एक ही मांग और एक ही समवेत स्वर
एक हो फैक्ट्री,एक हो ताकत
हम कोई सपना नहीं देख रहे हैं कामरेड...
यदि
एक
हो फैक्ट्री और दिल से मिल जाएँ दिल
हड़ताल करें हम और सैकडों हो जाएँ परचम
तीन दिन तीन रात
क्यों नहीं मुमकिन कामरेड?
एक हो फैक्ट्री एक हो यूनियन
दिल से मिला कर चलें दिल
हल्ला बोलें दस दस इलाकों में साथ साथ
एक ही दिन,कामरेड....
एक दिन कामरेड
बस एक दिन कामरेड
हम लाखो लाख हैं गिनती में
दिल से मिला कर दिल
जुट जाएँ जब हड़ताल पर
तो कपास रह जायेगा कोरा कपास ही
मिल हो जायेगी ठप
कपास रह जायेगा कोरा कपास ही
कपास नहीं बन पायेगा कपडा
इन्द्रधनुष कि तरह चमचमाती फैक्ट्री
तोड़ देगी लडखडा कर दम
सड़कें हो जाएँगी सुनसान
बच्चे नहीं जा पाएंगे स्कूल
नहीं चल पायेगी कोई बस
आकाश भी साध लेगा चुप्पी
उडेंगे नहीं विमान
सन्नाटे में डूब जायेगी हवाई पट्टी...
बस एक दिन कामरेड
यदि कर दे हम हड़ताल
गाने लगे एक स्वर में विरोध गान
बस एक दिन कामरेड...
देखना
थर थर काम्पने लगेंगे
शोषक और पूंजीपति...
अनुवादः यादवेन्द्र
शुक्रवार, नवंबर 06, 2009
प्रभाष जोशीः अब के सवनवां बहुरि नहि अइहैं...
यह कहने का कोई मतलब नहीं
कि तुम समय के साथ चल रहे हो
सवाल यह है कि समय तुम्हें बदल रहा है
या तुम समय को बदल रहे हो?
लोग वक्त के साथ चलने के लिए दिन-रात भागा-दौड़ी कर रहे हैं...कहीं मिसफिट न हो जाएं, लोग आउटडेटेड न कहने लगें इसलिए वे समय के साथ कदम ताल करते रहते हैं, लेकिन प्रभाष जोशी ऐसे नहीं थे. वे समय को अपने पीछे चलने के लिए मजबूर कर देने वाले इंसान थे. मैंने जितना उन्हें जाना वह बहुत नाकाफी है...उन्हें जानने के लिए जिंदगी ने वक्त भी उतना नहीं दिया। पर खैर...प्रभाष जी के आलोचक भी मैंने खूब देखे हैं....विकट, उनके निकट और उनसे दूर भी. ऐसों का कोई क्या करे जिनके श्रीमुख से कटु वचन और गाली ही स्वाभाविक लगती है...प्रभाष जी की मौत की खबर सुनकर पता नहीं उन्हें कैसा लग रहा होगा। पर अब यह सब देखने-सुनने के लिए वे नहीं आने वाले हैं।
मेरा दस साल पुराना परिचय था और वह भी प्रगाढ़ नहीं...बीच-बीच में मिलता रहता था। उनसे किसी मसले पर कुछ पूछता था तो वे जरूर बताते थे. पर इस वक्त की बोर्ड पर न उंगली चल पा रही है और न कुछ सूझ रहा है कि क्या लिखूं....? चचा ग़ालिब ने लिखा है...करते हो मना मुझको कदमबोश के लिए, क्या आसमां के भी बराबर नहीं हूं मैं...आमीन.
मंगलवार, अक्तूबर 20, 2009
मां कहकर चीखते हुए..........
आजकल अखबार की नौकरी में कई तरह के काम की अपेक्षा की जाती, कई तरह की फरमाइशें की जाती हैं. मदर्स डे पर फरमाईश की गई कि कृपया मदर्स डे के अवसर पर एक लेखनुमा विज्ञापन लिख दीजिए. सो यह लेखनुमा विज्ञापन लिखा और यह छपा था.
रुई के फाहे जैसा नाजुक, कोमलता और रंग में गुलाब के फूल जैसे शिशु को देखते ही मां निहाल हो जाती है। नन्हा शिशु कुछ नहीं जानता, मगर अपनी मां को पहचान लेता है। मां की आंचल को अपनी मुट्ठी में बांधने की कोशिश करने लगता है और मां अपने नवजात की इस हरकत को देखते ही सब कुछ भूल जाती है। शिशु की एक-एक गतिविधि मां को अपार सुख देती है। इस सुख के लिए मां अपनी रातों की नींद से लेकर सब न्यौछावर करने के लिए तत्पर रहती हैं। ..और यह चीज शिशु काल से ही बच्चे के मन में यह एहसास पैदा कर देती है कि मां के रहते उसे कुछ नहीं हो सकता। मां को सब कुछ पता है। मां आएगी तभी बच्चा खाएगा, मां साथ में सोएगी तभी सोएगा यानी कोई भी काम बगैर मां के पूरा होना लगभग नामुमकिन। इसलिए स्वाभाविक रूप से जन्म से ही बच्चा हर बात में मां-मां कहने का अभ्यस्त हो जाता है। मां के बगैर जीवन की कोई आकुल पुकार तक नहीं निकलती। राह चलते यदि कहीं ठोकर लग जाए, कोई भयानक चीज दिख जाए, कोई हौलनाक मंजर नजर के सामने से गुजर जाए तो बुजुर्गो के मुंह से भी बरबस मां शब्द ही निकलता है।
हमारे शास्त्रों में भी मां का दर्जा पिता से ऊपर होता है। तभी तो गोस्वामी तुलसीदास राम से पहले सीता माता का नाम लेना आवश्यक जानकर कहते हैं-सीताराम। यहां तक कि दुनिया को भी कहते हैं सियाराम मय सब जग जानी। राम से पहले सिया। कृष्ण से पहले राधा- राधाकृष्ण कहने का चलन इस बात को दिखलाने के लिए पर्याप्त है कि राम और कृष्ण वाकई ईश्वर हैं पर आम जनमानस में पहले सीता माता और राधा का स्थान है। तभी तो बंगाल में रिश्ते की हर स्त्री को मां कहने का रिवाज है। मसलन पिता की बहन को पिसी मा, बहू को बऊमा, बहन को दीदीमा, सास को ठाकुरमा, नानीमा, दादीमा यानी हर स्त्री को मां कहने का चलन है। बंगाल में हर स्त्री यानी मां। भारतीय परंपरा में मां के रूप में स्त्री को सर्वश्रेष्ठ दर्जा दिया गया है।
धार्मिक गाथाओं में भी तमाम देवता जब आसुरी शक्तियों से नहीं जीत पाते हैं तो मातृ शक्ति का आह्वान करते हैं। यह मातृ शक्ति देवी दुर्गा, काली, छिन्नमस्ता, चंडी आदि अनेक रूपों में राक्षसों का विनाश करती हैं। जिस तरह हमारे देवताओं को मातृ शक्ति पर सबसे ज्यादा भरोसा होता है उसी तरह छात्रावासों में रह रहे बच्चे को लगता है-तुझे सब है पता है न मां? रात को डरावना सपना देखता है और मां कहकर चीखते हुए उठकर बैठ जाता है। शर्ट के टूटे हुए बटन को देखता है और याद आती है मां। मेस के खाने से जब-जब ऊबता है तो याद आता रहता है मां के हाथ की दाल। मां के हाथ की खीर। मां के हाथ की सब्जी। इसलिए अकारण नहीं कि जवान होने पर भी आदमी पत्नी में अपनी मां छवि ढूंढने की असफल कोशिश करता रहता है। पत्नी की अधिकतर चीजों की तुलना अपनी मां से करता है। यह स्वाभाविक भी है। क्योंकि पैदा होने के साथ ही बच्चा जीवन भर अपनी मां से ज्यादा निकट नहीं किसी को नहीं पाता। वैज्ञानिक तथ्य यह है कि सद्य:प्रसूता स्त्री के देह से एक खास किस्म की गंध निकलती है, जो घर की अन्य महिलाओं के देह से नहीं निकलती। उस गंध के सहारे किसी को नहीं पहचानने वाला बच्चा भीड़ में भी अपनी मां को पहचान लेता है।
आप बड़े हो जाते हैं, कमाने लगते हैं, घर-परिवार बसा लेते हैं। मां से दूर अलग शहर में रहते हुए हम शायद अपनी मां की चिंता उतनी नहीं करते, जितनी वह दूर रहते हुए भी हमारी करती है। क्या मां की ममता का मोल चुकाया जा सकता है? यादों की बहुत छोटी-छोटी लेकिन महत्वपूर्ण पिटारी को जरा खोलिए और याद करिए कि कितनी बार नन्हीं लातें आपने उस पर चलाई होंगी, कितनी बार आपने घर में क्या-क्या तोड़ा-बिखेरा होगा और मां ने सब कुछ मुस्कुराते हुए समेटा। कितनी मिन्नतों के बाद रोटी का एक टुकड़ा, चावल के चार दाने आप चुगते थे और आपसे ज्यादा आपकी भूख से वह अकुलाती रहती थी। सुहानी शाम को जब दीया-बाती करते, श्लोक या मंत्र बुदबुदाते हुए अनायास ही जब उसने आपके भीतर घर की परंपरा और संस्कार के बीज डाले थे। बात-बात पर अपनी फरमाईशें और उसे पूरा करने के लिए खुशी-खुशी तत्पर मां की याद आप भूले न होंगे। दाल-चावल से लेकर मटर-पुलाव, अजवाइन डली नमकीन पूरियों की याद, कुरकुरी भिंडी, घी-जीरे में बघारी दाल सहित ऐसी कितनी ही सब्जियों की यादें आपके जेहन में होंगी जो मां के अलावा और किसी की याद दिला ही नहीं सकते।
जब 102-103 डिग्री बुखार में आप तप रहे होते थे तो आपकी सुखद नींद के लिए सारी रात कौन जागती थी? बेशक मां। सो जा बेटा, बीमारी हाथी की चाल से आती है और चींटी की चाल से जाती है..यह दिलासा आपको आज भी मां की याद दिला ही देता होगा। बड़े होने पर हम अपनी कम पढ़ी-लिखी या अनपढ़ मां की सलाहों पर, समझदारी पर भरोसा नहीं करते हैं। तभी तो मां कहती है कि जब मेरे बेटे को कुछ भी बोलना नहीं आता था तो यह क्या चाहता है-मैं जान जाती थी। अब जबकि यह सब कुछ बोलना जानता है, बहुत कुछ बोलता रहता है तो इसकी मैं एक भी बात नहीं समझ पाती हूं। कल जिसने हमें बोलना सिखाया, हमें भाषा दी, आज हम उसी को बोलने नहीं देते हैं। मां पुरानी, उसके मूल्य पुराने, उसकी बातें पुरानी। हम बर्दाश्त ही नहीं कर पाते हैं कि किसी भी नए चीज में मां आपका हित-अहित देखती-परखती रहती है। आपके लिए क्या अच्छा होगा, क्या बुरा हो सकता है इसको आंकती रहती है। आपकी झुंझलाहट के बावजूद हिदायत देना नहीं भूलतीं? हमें एकांत में कभी मां की इस आदत पर सोचना चाहिए और जब आप सोचेंगे तो पाएंगे कि आप खुद एक गहरे ममत्व के गिरफ्त में हैं। कितनी ही प्रार्थनाओं के बाद आप भगवान की सूरत नहीं देख सकते, मगर मां को ईश्वर के प्रतिरूप के रूप में देख ही सकते हैं।
जो गायब भी है हाजिर भी
गजल गायिकी के क्षेत्र में अपने अनूठे अंदाज के लिए मशहूर पाकिस्तानी गायिका इकबाल बानो नहीं रहीं। मंगलवार, 21 अप्रैल, 2009 को लाहौर के गार्डन टाउन इलाके में उनका इंतकाल हो गया।
फौजी जनरल याह्या खान के समय जब इस्लाम को लेकर बेहद सख्त और पाबंदी भरा रवैया अख्तियार किया गया था, तो उन्होंने जनता की आवाज बन जाने वाली इस नज्म के बहाने अवाम के मन की बातों को आवाज दी-
लाजिम है कि हम भी देखेंगे
हम देखेंग..
सब ताज उछाले जाएंगे
सब तख्त गिराए जाएंगे
हम देखेंगे..
बगावत करने के लिए उकसाती यह नज्म पाकिस्तान में बेहद मशहूर हुई। इस गजल को उन्होंने करीब 50 हजार की भीड़ के सामने गाया था। बाद में तो ये हुआ कि इकबाल बानो जब भी किसी मंच पर इस नज्म को गाते हुए ये कहतीं, सब ताज उछाले जाएंगे, सब तख्त गिराए जाएंगे तो दर्शकों के बीच से समवेत आवाजें आतीं-हम देखेंगे..। इसकी वजह ये थी कि फैज अहमद फैज की यह नज्म फौजी हुकूमत से परेशान जनता के दिल की सच्ची आवाज बन गई थी। इसके अलावा इकबाल बानो ने फैज अहमद फैज की दूसरी नज्मों और अहमद फराज की गजलों को अपने खास अंदाज में गाकर अमर कर दिया।
दिल्ली में 1935 में पैदा हुई इकबाल बानो को दिल्ली घराने के उस्ताद चांद ने शास्त्रीय संगीत की शिक्षा दी थी। बचपन में संगीत के प्रति उनके लगाव और पुरकशिश आवाज के कारण उनके पिता ने उन्हें संगीत सीखने की इजाजत दे दी। फिर वे आल इंडिया रेडियो, दिल्ली के लिए गाने लगीं। महज 17 साल की उम्र में लाहौर के एक बड़े जमींदार के साथ उनका निकाह हो गया। निकाह के बाद 1952 में वे पाकिस्तान चली गईं। शौहर ने उन्हें यह वचन दिया था कि वे इकबाल को कभी गाने-बजाने से नहीं रोकेंगे और उन्होंने अपना यह वचन 1980 में अपनी मृत्यु तक बखूबी निभाया। लाहौर में बेपनाह मुहब्बत करने वाले शौहर और अवाम के प्यार के बावजूद इकबाल के दिल में हमेशा दिल्ली के लिए खास प्यार बना रहा। वे बार-बार दिल्ली आना चाहतीं थी-यहां की शास्त्रीय संगीत की परंपरा, बचपन की गलियां-चौबारे उन्हें खींचती थी।
वहां जाने के बाद उन्हें लाहौर रेडियो ने गाने के लिए बुलाया। उन्होंने अपनी मधुर गायिकी का पहला सार्वजनिक प्रदर्शन बाद लाहौर के आर्ट कौंसिल में किया था। पचास के दशक में इकबाल ने कुछ पाकिस्तानी फिल्मों में भी गाया, जिनमें गुमनाम, कातिल, इंतकाम, सरफरोश, इश्क-ए-लैला और नागिन प्रमुख हैं। संगीत के रसिक कई बार बेगम अख्तर और इकबाल बानो गायिकी के बीच कुछ चीजों को लेकर तुलना भी करते रहते हैं। मसलन इकबाल भी राग की शुद्धता और गजल की गुणवत्ता का खास ख्याल रखती थीं। उर्दू के साथ-साथ फारसी गजलें भी वे पूरे अधिकार के साथ गाती थीं। इसलिए 1979 से पहले तक अफगानिस्तान के बादशाह उन्हें हर साल जश्न-ए-काबुल के मौके पर गाने का दावत भेजते थे। हालांकि वे मशहूर हुईं अपनी गजल गायिकी की वजह से, लेकिन ठुमरी और दादरा भी इकबाल ने बिल्कुल अलहदा अंदाज में गाया है। तू लाख चले री गोरी थम थम के..भी उनकी मशहूर गजलों में से एक माना जाता है।
यूं तो 74 वर्ष की उम्र कुछ खास नहीं होती, लेकिन कुछ महीने पहले ही वे जब बीमार पड़ीं, तो फिर उठ न सकीं। शायद पति के देहांत के बाद की तन्हाई और वक्त के साथ बढ़ते फासले की वजह से वे थक गई थीं और चल पड़ी अंतिम यात्रा पर..लाजिम है कि हम भी देखेंगे..कि उत्कंठा मन में लिए हुए।
महिलाएं निर्णायक और शक्तिशाली पदों पर आसीन
पाकिस्तान में निराला की निराली मिठाईयां
खाने-पीने के शौकीनों के लिए पाकिस्तान का लाहौर शहर वाकई स्वर्ग है, जहां विभाजन से पहले ग्वालमंडी के नाम से मशहूर बाजार पिछले कई दशकों से फूड स्ट्रीट के नाम से जाना जाता है। फूड स्ट्रीट में सड़क के दोनों ओर सिर्फ खाने-पीने की ही दुकानें हैं। शाम के छह बजे के बाद इस मार्केट में सुरक्षा बेहद कड़ी कर दी जाती है और खाने-पीने के कद्रदानों को सिर्फ पैदल ही जाने के इजाजत होती है। दिलचस्प यह है कि यदि आपको अलग-अलग तरह के पकवान खाने का दिल कर रहा है, तो इसके लिए अलग-अलग दुकानों में जाने की जरूरत नहीं है। किसी भी एक मनपसंद दुकान पर आप बैठ जाएं, वहां जो पसंद हो वह खाएं और वहीं बैठे-बैठे जो दिल करे उस पकवान के लिए आप वेटर को आर्डर करें। वह हर दुकान से चीजें ला-लाकर आपके सामने परोसता जाएगा। फिर आप उसी को बिल दे दें। वह जिस दुकान से जो लाया होगा, वहां जाकर पैसा चुका आएगा।
तो साहब, हम युसुफ की खीर की दुकान पर खीर खाने के लिए बैठे। दुकान के मालिक युसुफ खान बड़े कड़ाह में दूध खौला रहे थे और बीच-बीच में पाउडरनुमा कुछ डालते जा रहे थे। मैंने पूछा कि ये पाउडर क्या है, तो उन्होंने कहा, जनाब काजू-बादाम-पिस्ता और इलाइची का पाउडर है। सूखे मेवे पहले ही डाल दिए हैं। जिसको आप पाउडर कह रहे हैं, वही तो असली चीज है हुजूर..यह कहकर वे पान चबाते हुए खीर बनाने लगे। मेरे सामने ही पूर्व पाकिस्तानी क्रिकेटर इमरान खान पूरे लाव-लश्कर के साथ खीर खाने आ पहुंचे। युसुफ साहब ने जैसी खीर खिलाई, वैसी खीर बनारस, आगरा और मथुरा में भी नहीं खाई। खीर खाकर जब मैं चलने लगा तो युसुफ भाई ने कहा, जनाब यदि आपने निराला की मिठाई नहीं खाई तो समझ लीजिए लाहौर में आपने कुछ नहीं खाया। आप हिंदुस्तान लौटकर पछताएंगे कि लाहौर जाकर भी निराला की मिठाई खाए बगैर लौट आया। निराला नाम सुनते ही मेरे जेहन में महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का नाम निराला..निराला..गूंजने लगा। भारत में रहते हुए मैंने ऐसे नामों की कल्पना भी नहीं की थी-लक्ष्मी चौक, सुंदर दास रोड, लाला छतरमल रोड, दयाल सिंह कालेज, गुलाब देवी अस्पताल, सर गंगाराम अस्पताल, पटेल अस्पताल और अब निराला स्वीट्स?
तकरीबन पचास साल पहले 1948 में अमृतसर से पाकिस्तान आकर मरहूम ताज दीन ने पुराने लाहौर के फ्लेमिंग रोड में मिठाई और नाश्ते की दुकान खोली। थोड़े ही समय में उनके मिठाई के चर्चे होने लगे। उनके बाद उनके पुत्र फारुक अहमद ने लाहौर के जेल रोड में दूसरी दुकान खोली। उन्होंने पैकेजिंग और गुणवत्ता को लगातार बरकरार रखने पर पूरा जोर लगाया। जिसका बड़ा असर यह हुआ कि आज पाकिस्तान में निराला एक बड़ा ब्रांड नाम बन गया है। जिसका फायदा उन्हें दूसरे व्यवसायों में मिल रहा है। फारुक अहमद के दो बेटे एम.बी.ए. पास हैं और उन्होंने इस बिजनेस का आधुनिकता के मेल करके दुकान की सुंदरता के मामले में मैकडोनाल्ड को भी मात दे दिया है। इस वजह से आज निराला की प्रसिद्धि का आलम ये है कि कराची, रावलपिंडी, इस्लामाबाद, सियालकोट, पेशावर, क्वेटा, सरगोधा, फैसलाबाद यानी पूरे पाकिस्तान में निराला स्वीट्स की एक बहुत बड़ी श्रृंखला है। कुछ-कुछ उसी तरह जैसे दिल्ली में अग्रवाल स्वीट्स और नाथू स्वीट्स की शहर भर में पूरी चेन है। मगर इनकी मौजूदगी पूरे देश तो क्या पूरे एनसीआर क्षेत्र में भी बहुत बड़े पैमाने पर नहीं दिखाई देती है। मगर निराला और पाकिस्तानी अवाम जैसे एक-दूसरे के पूरक हैं। हर शहर में निराला, हर जुबान पर निराला-ये स्लोगन वाकई पाकिस्तान में सच लगता है।
कराची में निराला स्वीट्स के नब्बे फीसदी से ज्यादा कारीगर हिंदू हैं। यह धारणा लगभग अंधविश्वास की तरह पाकिस्तानियों के मन में है कि हिंदू बेहतर मिठाई बनाते हैं। इस वजह से निराला के अलावा और दूसरी मिठाई की दुकानों में भी हिंदू कारीगर ही आम तौर पर होते हैं। पूरे पाकिस्तान में 25 लाख से ज्यादा हिंदू आबादी है, लेकिन दुखद यह है कि वहां भी भारत की ही तरह जातिवाद है। इसलिए सवर्ण पाकिस्तानी हिंदू नीची जाति के कारीगरों के हाथों की बनी हुई मिठाई लेना पसंद नहीं करते। मगर मुसलमान इस तरह का कोई भेदभाव नहीं बरतते। हालांकि शाकाहारी होने के कारण पाकिस्तानी मुसलमान वहां के हिंदुओं को दालखोर यानी दाल खानेवाला कहकर चिढ़ाते हैं, मगर ये भी स्वीकार करना नहीं भूलते कि जनाब हिंदू से बेहतर शाकाहारी खाना और कोई नहीं बना सकता। मैंने जिज्ञासावश पूछा क्यों? तो निराला स्वीट्स के मालिक ने कहा कि मुसलमान कारीगर सब्जी भी बनाएंगे तो मटन-चिकन की तरह बनाकर रख देंगे। बगैर अधिक तेल-मसाला डाले हमारे हिंदू कारीगर क्या लाजवाब दाल-सब्जी बनाते हैं। खाना सादा, मगर जायका निराला।
निराला की मिठाईयों की एक लंबी सूची है-सौ से भी ज्यादा किस्म की। रेगुलर स्वीट्स, स्पेशल स्वीट्स और शुगर फ्री स्वीट्स की लंबी सूची है। बालूशाही, बर्फी बादाम, बर्फी रुस्तम, हलवा टिक्की, हलवा हब्शी, हलवा कराची, पतीसा गोल, फीकी जलेबी, इमिरती, समोसा गोंडवी, शाही तोश जैसी रेगुलर स्वीट्स की लंबी सूची है। वहीं मधुमेह रोगी मिठाई के शौकीनों के लिए शुगर फ्री रसगुल्ले, काला जामन, लाल जामन, पेठे, मोतीपाक, मोतीचूर की कई प्रकार उपलब्ध रहते हैं। मिठाई जब खा लें तो निराला का राबड़ी मिल्क जरूर ट्राई कीजिए और तब तक पेट यदि पूरी तरह भर चुका हो तो निराला-पानी ब्रांड का मिनरल वाटर तो पी ही सकते हैं। यदि दोनों न पीना चाहें तो निराला स्वीट्स में एक अद्भुत किस्म का जूस मिलता है जिसका नाम है-बाउंसर। जीभ से स्पर्श होते ही वाकई बाउंसर लगने का एहसास होता है। नमकीन के शौैकीनों के लिए भी बहुत बड़ी रेंज है -दाल मूंग, दाल मसूर, पोपट और अनेक तरह के दालमोट, नानखटाई और मैदे के विभिन्न बिस्कुट। ..और निराला के समोसे का तो भई जवाब नहीं। समोसा यहां वेज और नान वेज दोनों मिलता है। नान वेज के शौकीन चाहें तो चिकेन समोसा आजमा सकते हैं। नाश्ते में वहां एक स्पेशल चीज मिलती है-फीओनियन। यह सेवई जैसी एक चीज होती है जो बेहद गर्म दूध में मेवे वगैरह डालकर परोसते हैं। ऐसा लाहौर के लोग मानते हैं कि यदि आपने निराला में यह नाश्ता कर लिया तो आपको दिन भर और कुछ खाने की जरूरत नहीं होगी। रमजान के महीने में वहां यह खासा लोकप्रिय नाश्ता माना जाता है और विशुद्ध देशी घी में बनी निराला की इमरती और जलेबी का तो क्या कहना।
निराला स्वीट्स ने कई तरह की बेहतरीन पैकेजिंग के लिए एक अलग विभाग ही बनाया हुआ है, जहां ग्राहकों के आर्डर पर अलग-अलग तरह से उपहार दिए जाने वाले मिठाई की मनपसंद पैकिंग बिल्कुल मुफ्त की जाती है। पाकिस्तान में और पाकिस्तान से बाहर अपनी मिठाई के शौकीनों के लिए निराला ऑनलाइन ऑर्डर लेता है और महज 72 घंटों में घर पहुंचा देता है। वक्त की पाबंदी का इतना खयाल रखा जाता है कि वक्त की पाबंदी के मामले में वहां निराला की मिसाल दी जाती है। अफसोस यह है कि इन दिनों दोनों देश के बीच जिस तरह के रिश्ते हैं, उस वजह से शायद हम भारतवासी निराला की मिठाई नहीं मंगवा सकते। फिलहाल हम यह प्रार्थना ही कर सकते हैं कि स्थिति सामान्य हो तो भारत के लोग भी निराला की मिठाई चख सकें।
इतिहास का एक अजनबी
ये तब की बात है जब मैं तब पांच-छह साल का था। मेरी मम्मी चूंकि पत्रकार थी, इसलिए काम के सिलसिले में अक्सर उनका शहर से बाहर आना-जाना लगा रहता था। मेरी मां सोचती थी कि कि चूंकि मेरी कोई बहन या भाई नहीं है इसलिए मेरे लिए बेहतर ये है कि मुझे वे नाना-नानी के पास छोड़ जाएं। वहां मेरे मामा और मौसियों के बच्चों के संग मेरा मन लगा रहेगा। नीम के पेड़ के पास हम खेल रहे थे। अचानक मेरे एक ममेरे भाई ने चिल्ला कर कहा-आतिश का सूसू नंगा है। मैं नंगा का मतलब जानता था-यह शब्द अक्सर मेरी नानी तब इस्तेमाल करती थी जब कोई बच्चा पैंट पहनने में आनाकानी करता था। थोड़ी देर बाद हमलोग घर आए, तो वहां भी मेरे कजिन ने वही वाक्य चिल्लाकर दोहराया। इस बार घर के तमाम लोग मेरी तरफ देखकर हंसने लगे। यह वाक्य मेरी स्मृत्तियों में खचित हो गया। तभी मुझे लगा कि मैं अपने दूसरे सिख भाईयों से अलग हूं। एक परिवार में होते हुए भी मैं सबसे अलग क्यों हूं? मैंने सोचा कि मम्मी के लौटते ही सबसे पहले इसका मतलब पूछूंगा कि मेरे कजिन ने मेरे सूसू को नंगा क्यों कहा? इसी अहसास ने मुझे अपने मुसलमान पिता और उनके देश पाकिस्तान के बारे में जानने के बारे में जिज्ञासा पैदा की।
जुलाई 2002 की बात है। मैं पहली बार अपने पिता से मिलने पाकिस्तान जा रहा था। वीजा के सिलसिले में जब मैं पाकिस्तान हाई कमीशन गया था, तो पता चला वे लोग मेरे पिता को जानते हैं। चूंकि मेरा पासपोर्ट ब्रिटेन का था, इसलिए वीजा में यह विकल्प था कि मैं कहीं से भी पाकिस्तान में प्रवेश कर सकता हूं। अटारी बोर्डर से उस पार जाने पर पता चला कि पासपोर्ट-वीजा की जांच कर रहे हाकिम भी मेरे पिता को जानते हैं। वहां एक साहब ने मुझसे पूछा कि मैं किस सिलसिले में यहां आया हूं, तो मैंने बताया कि मेरे एक दोस्त का जन्म दिन है। थोड़ी दूर से मुझे सही करती हुई एक आवाज आई-सालगिरह। तभी एक सज्जन ने आकर पूछा कि ओह, आप इंडिया से आए हैं। मैंने कहा, हां। उन्होंने फिर पूछा, मगर आपके वालिद तो सलमान तासीर साहिब हैं? पर खैर वह प्रसंग वहीं समाप्त हुआ।
लाहौर के सबसे पाश इलाके में मेरे पिता का फार्म हाउस है, जहां वे रहते थे। अब तो खैर वे पंजाब के गवर्नर हैं, सो जाहिर है अब वे गवर्नर हाउस के वासी हैं। इसके साथ ही वे पाकिस्तान के बड़े उद्योगपतियों में से एक हैं। एक में उन्होंने ठान लिया था कि वे पूरी तरह से अपने बिजनेस में रमे रहेंगे, पर बाद में वे फिर राजनीति में आए। मैंने पाया कि मेरे पिता हालांकि बहुत कट्टर अर्थों में मजहबी नहीं हैं। वे शराब के शौकीन हैं और कोई भी शाम उनकी शराब के बगैर नहीं शुरू होती है। फिर भी वो खुद को बहुत गहरे अर्थों में सांस्कृतिक मुसलमान मानते हैं। यह बात मेरे समझ में नहीं आई कि उनका रहन-सहन, उनका खान-पान, उनका आचरण कहीं से भी मजहब की कोई बू नहीं तो फिर ये सांस्कृतिक मुसलमान होना क्या है? हर चीज में इस्लाम की उच्चता साबित करने की कोशिश करने वाले अपने पिता के इस्लाम को जानने के लिए मैंने एक संकल्प ले लिया।
सांस्कृतिक मुसलमान होने का मतलब तलाश करने के लिए आतिश ने सीरिया और सऊदी अरब से लेकर तुर्की, ईरान, पाकिस्तान आदि देशों की यात्रा करने की सोची। ताकि इन देशों के विभिन्न वर्गों के लोगों से मिलकर उनके मनोविज्ञान और उस मनोविज्ञान को बनाने में उनके मजहब के योगदान के बारे में जाना जा सके। ..और आतिश का यह सफर सवालों के जवाब तलाश करने का एक बड़ा सफर साबित हुआ। अगर इस्लामी उम्मा सिर्फ एक खयाल नहींयथार्थ है तो फिर इस्लामी देश अलग-अलग सीमाओं में क्यों बंधे हैं? और बाकी देशों की तरह एक धर्म होने के बावजूद आपस में युद्ध क्यों करते हैं? दुनिया भर के दारुल हर्ब को दारुल इस्लाम में बदल डालने के लिए लड़ रहे मुजाहिदीनों के संदर्भ में सहज ही उनका सवाल है कि मुस्लिम देशों के बीच भाईचारे की जगह क्यों तनातनी पैदा होती है? संयोग से इन सवालों के जवाब उस आतिश ने तलाशने की कोशिश की है जिसे डेढ़ साल की उम्र में उसके पिता ने त्याग दिया था और दोबारा पलटकर फिर कोई खैरियत न पूछी।
व्यापक अर्थ में सांस्कृतिक मुसलमान होने के मतलब को जानने-समझने के लिए आतिश ने सीरिया, सऊदी अरब, तुर्की, ईरान और पाकिस्तान की यात्रा की। हर देश में जाकर वे हर वर्ग के लोग से मिले। हर तरीके से उनमें घुल-मिलकर उनके भीतर के इस्लाम को जानने की कोशिश की। जिसके बाद जवाब की खोज में निकले आतिश को जवाब बेहद कम और सवाल ही अधिक मिले। तुर्की में उदारवादी व्यवस्था की जगह वहां के लोग कट्टर इस्लामिक व्यवस्था का ख्वाब देखते हैं। आतिश की इंस्तांबुल में मुलाकात ऐसे इस्लामपरस्तों से हुई जो धर्मनिरपेक्ष सत्ता से तकरीबन नफरत करते हैं और उनका बस चले तो वे तुरंत वहां शरिया कानून लागू कर दें। मगर यह चीज आतिश को ईरान को में परेशान करती है कि जैसी शरिया आधारित व्यवस्था तुर्की के लोग चाहते हैं वह तो पहले से ईरान में कायम है। धार्मिक कड़ाई और बंदिश का असर यह है कि ईरानी इस व्यवस्था से बगावत पर उतारू हैं। तेहरान में आतिश को ऐसे लोग भी अच्छी-खासी तादाद में मिले जो गुप्त रूप से हरे राम-हरे कृष्ण संप्रदाय को मानते हैं। कान्हा की मूर्ति के सामने भजन-कीर्तन करते हैं, नाचते-गाते हैं। ईरान में उनकी मुलाकात एक ऐसे चित्रकार से होती है, जो इस्लाम में बहुत आस्था रखता है और हर दम अपनी कार में कुरआन रखता है। एक दिन उसका एक मित्र कुरआन उठाकर फेंक देता है और कहता है-इसमें कुछ नहीं रखा है। उस चित्रकार का विरोध इस्लाम से ज्यादा उस सरकार का विरोध था जो जनता पर जबर्दस्ती मजहब को लादती है। आतिश लिखते हैं कि, ईरान जाने के बाद मुझे यह पता लगा सीरिया में उसका इलहाम हुआ कि मजहबी विचार को आधुनिक दुनिया के खिलाफ एक नकारात्मक विचार से जब तक सकारात्मक प्रयोग में बदला जाता है, तो वह किस तरह हिंसक और आत्मघाती बन जाता है। तुर्की के लोग उस इस्लामिक व्यवस्था की कल्पना करते हैं जो मोहम्मद साहिब के समय में रही होगी। क्योंकि उन्हें लगता है कि आधुनिकता दरअसल इस्लाम के खिलाफ एक साजिश है। ..और तुर्की वालों की यह कल्पना जब ईरान में पहले से साकार है तो वहां इस व्यवस्था से बगावत की दबी हुई चिंगारी दिखती है। लब्बोलुआब यह कि बलपूर्वक मानने को बाध्य की गई किसी भी व्यवस्था से सहज की प्रतिकार की आशंका बलवती होने लगती है।
आतिश ने मुस्लिम दुनिया की मानसिकताओं, प्राथमिकताओं और विसंगतियों को बहुत गहराई में जाकर देखने की कोशिश की है। हालांकि यहां इस बात को भूलना नहीं चाहिए कि इन तथ्यों की व्याख्या के समय आतिश के मन में पिता से मिली तल्खी भी कहीं न कहीं बनी रही है। लेखक ने अपने निजी जीवन में मौजूद तल्खी और गुस्से को बेहद बड़े कैनवास पर देखने की कोशिश की है इसलिए कई जगह ऐसा लगता है कि उनके निष्कर्षो से तत्काल मुतमइन होना सहज नहीं है। बावजूद इसके आतिश की भाषा, निजी अनुभव और अंदाजे-बयां बेहद मोहक है। जिसकी तस्दीक उनका परिपक्वता की ओर बढ़ता हुआ निजी कंठ-स्वर है।
ऐसे पैदा होती हैं सनसनीखेज खबरें
दिल्ली के हाई प्रोफाइल लोगों के क्लब इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में भारत और पाकिस्तान के नामचीन पत्रकारों के लिए द फाउंडेशन फॉर मीडिया प्रोफेशनल्स ने एक सेमिनार आयोजित किया था। जिसमें पाकिस्तान की पत्रकारिता को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बेहतर पहचान दिलाने वाले कई पत्रकार उपस्थित थे। पेशावर स्थित जंग समूह के द न्यूज के संस्थापक और कार्यकारी संपादक सहित बीबीसी की पश्तो और उर्दू सेवा के लिए रिर्पोटिंग, टाइम मैगजीन आदि के लिए रिर्पोटिंग करने वाले पत्रकार रहीमुल्ला युसुफजई, कराची में रहने वाली स्वतंत्र पत्रकार और फिल्म निर्माता बीना सरवर, डेली आजकल के संपादक सईद मिन्हास, बीबीसी बड़े पत्रकार वुसतुल्लाह खान और द न्यूज के मुनीबा कमाल सहित नामचीन पाकिस्तानी पत्रकारों की अच्छी-खासी संख्या थी। इधर भारत की ओर से प्रख्यात बुद्धिजीवियों की भी अच्छी-खासी संख्या थी, जिनमें जानी-मानी लेखिका अरुंधति राय, हिंदुस्तान टाइम्स के अमित बरुआ सहित तकरीबन ढाई सौ भारतीय और पाकिस्तानी पत्रकार भाग ले रहे थे।
भारत-पाकिस्तान में अंध-राष्ट्रभक्ति बढ़ाने में मीडिया की खतरनाक स्तर तक पहुंच चुकी प्रवृत्ति को लेकर सेमिनार में अच्छे व्याख्यान हुए, बेहतर स्तर के सवाल-जवाब हुए और पूरा कार्यक्रम तकरीबन तीन घंटे तक चला, जिसमें कथित श्रीराम सैनिकों (जिनकी संख्या महच तीन थी) के उत्पात को छोड़ दें, तो पूरा कार्यक्रम निर्विघ्न रूप से तकरीबन तीन घंटे तक चलता रहा। लोगों के बीच अच्छी बातचीत हुई, हँसी-मजाक हुए। कार्यक्रम की समाप्ति के बाद जहां कुछ पाकिस्तानी पत्रकार भारतीय चुनाव पर बात करने लगे, वहींकुछ पत्रकार दिल्ली में मिलने वाली उम्दा क्वालिटी की शराब की जानकारी इसके विशेषज्ञ भारतीय मित्रों से लेने लगे। क्योंकि मयनोशी के शौकीन बेचारे पाकिस्तानी पत्रकारों को अपने इस्लामिक देश में यही एक चीज है जो मयस्सर नहीं। वहां शराब की दुकानों से हिंदू, ईसाई और सिख तो शराब खरीद सकते हैं, लेकिन पाकिस्तानी मुसलमान नहीं। खैर..सेमिनार के बाद भारत-पाक के पत्रकार यूं मिल रहे थे, जैसे अपने बेहद खास दोस्तों-रिश्तेदारों से मिल रहे हों-अलग-अलग टोलियों में शाम की दावत और सुकून भरे पल बिताने के बारे में लोग योजनाएं बना रहे थे।
अजीब और दुखद बात यह है कि जिस मुद्दे पर बातचीत करने के लिए भारत-पाक के ये नामचीन सहाफी इकट्ठे हुए थे, दरअसल वही इस सेमिनार से बाहर की दुनिया में उसी दिन और उसी वक्त घटित हो रहा था। हुआ ये था कि बीबीसी के पेशावर स्थित संवाददाता रहीमुल्ला युसुफजई, जिन्होंने ओसामा बिन लादेन का इंटरव्यू करके दुनिया को सीधे उसके विचारों से रू-ब-रू करवाया था-उस दिन सेमिनार में अपने मौलिक अंदाज में थे। वे जब पाकिस्तानी और हिंदुस्तानी मीडिया के गैर जिम्मेदाराना रवैये का उदाहरण दे-देकर ब्यौरा पेश करते हुए तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत कर रहे थे, उसी वक्त कथित तीन श्रीराम सैनिकों ने पाकिस्तान के खिलाफ नारेबाजी शुरु कर दी। तब आईआईसी के प्रबंधकों और आयोजकों ने भद्र तरीके से उन्हें हॉल से बाहर निकाल दिया। बस फिर क्या था-ततैये के झुंड पर तो पत्थर लग चुका था। जो मीडिया वाले सेमिनार सुन रहे थे, जो टीवी चैनल वाले वक्ताओं की बातों को फिल्मा रहे थे, उनका कैमरा उन्हीं तीन श्रीराम सैनिकों पर केंद्रित हो गए। गरमा-गरम बाइट मिला, गरमा-गरम हाट सीन मिला और गरमा-गरम टापिक भी मिल गया। फिर वहां कौन वक्त खराब करने के लिए रुकता? दौड़े वे लोग खबर चलाने के लिए। क्योंकि छप रहे अखबार और पक रहे मांस को चाहिए गरम मसाला। ..और जनाब मामला जब दुश्मन देश पाकिस्तान से जुड़ा हो, मियां मुशर्रफ के देश से जुड़ा हो तो इससे ज्यादा हॉट न्यूज भला और क्या हो सकता था?
इधर कार्यक्रम चल रहा था और उधर टीवी के टिकर्स (पर्दे के नीचे चलनेवाली खबरों की पट्टी) से मुख्य खबरों की जगह आन विराजा था यह महत्वपूर्ण समाचार-नई दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में पाकिस्तानी पत्रकारों पर श्रीराम सेना का हमला, हालात को काबू में करने के लिए भारी संख्या में पुलिस बल तैनात आदि-आदि। पाकिस्तानी पत्रकारों ने जो बातें कहीं, सेमिनार में जो कुछ हुआ वह सब गया भाड़ में, खबर ये पैदा हुई कि श्रीराम सैनिकों का पाकिस्तानी पत्रकारों पर हमला। तीन ही लोग यदि सैनिकों जैसे बहुवचन के साथ न्याय करते हों, तो धन्य हैं हमारे खबर बनाने वाले सूरमा। यदि वे तीन श्रीराम सैनिक लिखते तो क्या तथ्य गलत हो जाता? मगर अश्वत्थामा हतो नरो वा कुंजरो की तर्ज पर उन्होंने तीन सैनिकों शब्द का इस्तेमाल करना बिल्कुल मुनासिब नहीं समझा। व्याकरण के नियमों का अच्छा उदाहरण पेश किया कि श्रीराम सैनिकों का पाकिस्तानी पत्रकारों पर हमला। अब पाठक समझते रहें कि सैनिकों का मतलब तीन है या तेरह हजार।
निष्पक्षता और तटस्थता का ठेका तो उन्होंने तभी लेना बंद कर दिया, जब से अनुबंध की नौकरी पर आए। इसलिए सैनिकों तो भई सैनिकों हैं और मार्केटिंग की पालिसी कहती है कि यदि आपने संख्या सही-सही बता दी, तब तो बिक गया प्रोडक्ट और मिल गई टीआरपी और विज्ञापन। तो ये है खबर बनाने का तरीका और इस तरीके से बनती है असली खबर। ..इस खेल में भला पाकिस्तानी मीडिया भी कैसे पीछे रहती। सो यह खबर जैसे ही भारतीय मीडिया में आई तो पाकिस्तानी मीडिया ने भी इस खबर को लपक लिया। उसके बाद तो पाकिस्तानी पत्रकारों की शामत आ गई। सबकी बीवी यहां फोन खड़काने लगी और शौहर की खैरियत पूछने लगी। बताया कि जी, यहां तो पाकिस्तान में खबर चल रही है कि आप लोगों पर श्रीराम सेना के चरमपंथियों ने जानलेवा हमले किए हैं। क्या हुआ जल्दी बताइए? अब वे लोग इस तमाशा के बारे में कहें तो क्या कहें? सबने इस खबर को बेबुनियाद बताया, तो बीवियों ने सोचा शौहर हमारा दिल रखने के लिए ऐसा बोल रहे हैं-ताकि वे कोई चिंता न करें। तमाशा भले न हुआ, लेकिन पुर्जे तो उड़ चुके थे और उड़कर पाकिस्तान तक पहुंच चुके थे। सो यहां आईआईसी में भले तमाशा न हुआ हो, मीडिया में तो तमाशा हो गया था।
अब जरा यह भी जान लीजिए कि इस सेमिनार में जो मुद्दे उठे क्या वे गैर जरूरी थे? आतंकवाद और तालिबानी खतरे को लेकर भारतीय रवैये को लेकर उनका कहना था कि भारत कहता है कि ये तो पाकिस्तान की ही लगाई हुई आग है..अब वो भुगते, इससे हमें क्या? अस्सी और नब्बे के दशक में यही रवैया पाकिस्तान का भी अफगानिस्तान को लेकर था-ये अफगानिस्तान की आग है, हमें क्या? मुजाहिदीन जानें, रुसी जानें या खुदा जाने। उस वक्त पाकिस्तानियों को यह अहसास नहीं था कि ये वो तीर है जो वापिस लौटकर भी आता है। पाकिस्तान के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है कि दो-तिहाई पाकिस्तान किसी-न-ृकिसी किस्म के आतंकवादी हमले, धार्मिक हमलों को बेहद उग्र रूप में झेल रहा है। जिससे देश का वजूद ही संकट के दायरे में आ गया है। पाकिस्तान एक ऐसा मरीज बन गया है जिसे इस वक्त उसकी संगीन गलतियां याद दिलाने, धमकियां और डांट-डपट करने से ज्यादा जरूरी है उसकी मदद और प्यार। पाकिस्तान और प्यार? वह भी भारत उसे प्यार करे, जिसे उसने हमेशा ही घावों और मौतों का उपहार दिया है? यह बात भला कथित श्रीराम सैनिक कैसे सह लेते? और वे यदि सह भी लेते तो जिंगोइज्म यानी अंध-राष्ट्रभक्ति से लबरेज हमारी मीडिया कैसे नजरअंदाज कर देती इसे? आखिर उनकी बाजारोन्मुखी राष्ट्रभक्ति और इश्तहार पैदा करने वाले प्रोडक्ट का सवाल था।
मुंबई हमले के बाद भारतीय मीडिया की इसी जिंगोइज्म की चर्चा हो रही थी कि कैसे दोनों देश की सरकारों से ज्यादा मीडिया ने युद्ध लड़ना शुरू कर दिया। हर कोई अपने तोप का मुंह पाकिस्तान की ओर घुमाकर गोला भरने लगा है। क्या यही काम कभी पहले इराक युद्ध के समय सीनियर बुश के मिसाइलों के प्रहार की बेहतर कवरेज के लिए नहीं हुआ था? याद करिए कि उस समय बेहतर कवरेज के लिए नए सिरे से हमले की तारीख और वक्त तय किया गया था। मगर अफसोस कि भारतीय और पाकिस्तानी मीडिया को मुंबई हमले के बाद अग्नि, पृथ्वी और हत्फ मिसाइलों की कवरेज का सौभाग्य(?) नहीं मिला। कितनी गलत बात है ये कि कमबख्त सरकारों ने मीडिया की भावनाओं का जरा भी खयाल ही नहीं रखा। लानत है मनमोहन सिंह और आसिफ अली जरदारी पर। सो इन दिनों भारत में इन भावनाओं का पेट भरता है प्रतिदिन तालिबान पर गलत-सलत फुटेज दिखाते हुए आधारहीन खबरें ब्रेक करने से, श्रीराम सैनिकों के विरोध को बड़ी खबर बनाने से। ऐसे में आखिर क्यों नहीं दोनों देशों की पत्रकारिता की विश्वसनीयता का क्षय होगा। रहीमुल्ला युसुफजई ने व्यंग्य बातचीत में व्यंग्य किया था-जय हो..। अब ये मत पूछिएगा कि किसकी? ओके?
क्या सोचते हैं पाकिस्तानी युवा?
पाकिस्तान का नाम सुनते ही आम भारतीय के दिमाग में मुंबई हमले में पकड़े गए एकमात्र जीवित आतंकवादी अजमल अमीन कसाब का चेहरा आता है या जम्मू-कश्मीर में प्रतिदिन सुरक्षा-बलों के साथ मुठभेड़ में मारे जाने वाले आतंकवादियों का। दुर्भाग्य से पाकिस्तान हमेशा गलत कारणों से अंतरराष्ट्रीय मीडिया में छाया रहता है। जबकि आतंकवाद और कानून-व्यवस्था से अलग पाकिस्तान की जो समस्याएं हैं, उस पर चर्चा कम होती है। हाल में आई पाकिस्तानी फिल्म खुदा के लिए में जेहादियों, मदरसा वालों और कट्टर धार्मिक संगठनों में शिक्षित लोगों से अलग आम पाकिस्तानी युवाओं की क्या सोच है, यह दिखाने की कोशिश की गई है। अपनी सोच, रहन-सहन, और आम व्यवहार में पाकिस्तानी मध्यवर्ग कैसा है, इसके बारे में एक सामान्य जानकारी इस फिल्म से मिलती है।
पाकिस्तानी राजनीतिज्ञों और आतंकवादी संगठनों के आकाओं का बयान अक्सर कट्टरतापूर्ण और भारत विरोधी होता है, इसलिए हमें लगता है कि ऐसा ही पूरा पाकिस्तानी समाज है और वहां के युवा वर्ग की यही सचाई है। जबकि हकीकत यह है कि अंग्रेजी माध्यम से शिक्षित लोग काफी हद तक उदार, खुले दिमाग और चीजों को निष्पक्षता और तटस्थता से देखने वाले हैं। पाकिस्तान की ब्यूरोक्रेसी, उच्च शिक्षा, राजनीति, मीडिया और व्यापार में ज्यादातर ऐसे लोगों का दखल है। वहां की किसी भी नामचीन शिक्षण संस्थान में छात्राएं और अध्यापिकाएं बुर्के में नहीं रहती हैं। अफगानिस्तान से लगी सीमाओं और जनजाति बहुल इलाके फाटा को यदि छोड़ दिया जाए, तो पाकिस्तान में नकाब पहनने की प्रथा लगभग नहीं है। यहां तक कि आधी रात को भी ग्वाल मंडी (जो अब फूड स्ट्रीट के नाम से जाना जाता है) में अकेली औरतों को, रोमांटिक मुद्रा में खाना खाती नई दुल्हनों या प्रेमी-प्रेमिकाओं के जोड़ों को आसानी से देखा जा सकता है।
हिंदी फिल्मों का यहां के युवाओं पर इतना अधिक असर है कि वे जो भी नया हेयर स्टाइल देखते हैं, नया ड्रेस देखते हैं, तो वैसा ही दिखने का जुनून सवार हो जाता है। लाहौर के सबसे प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थान गवर्नमेंट कालेज के कुछ छात्रों ने शिकायती लहजे में मुझसे पूछा कि जनाब, ये बताएं कि आपके यहां पाकिस्तान को लेकर फिल्में बनती हैं, उसमें एक्ट्रेस हमेशा पाकिस्तान की क्यों दिखाई जाती हैं? हिना, गदर सब में में ऐसा ही है। क्या ये महज इत्तफाक भर है या इसके पीछे कोई खेल है? यह जानना दिलचस्प होगा कि हिंदी फिल्मों की लोकप्रियता का पाकिस्तानी युवाओं पर इतना अधिक असर है कि वे संस्कृतनिष्ठ शब्द लोकप्रियता, आचरण, व्यवहार, परिश्रम, आनंद, पिता, निर्देशक इत्यादि धड़ल्ले से बोलते हैं। चूंकि पूरे पाकिस्तान में हिंदी फिल्में ही चलती हैं, इसलिए यदि मदरसा में शिक्षित फारसी के आग्रही विद्वानों को छोड़ दें, तो वहां की जनता की आम जुबान में फारसी के शब्द बहुत कम इस्तेमाल होते हैं।
पाकिस्तानी पंजाब की हृदयस्थली लाहौर में लाहौर यूनिवर्सिटी ऑफ मैनेजमेंट साइंसेज यानी लम्स की प्रतिष्ठा हमारे यहां के आई.आई.एम. की तरह है। यहां से पास हुए बच्चों को लाखों रुपये महीने की नौकरी आसानी से मिल जाती है। जिन छात्रों से मेरी बात हुई, उनके मन में भारत के प्रति विरोध और नफरत की जगह भारत देखने की हसरत दिखाई दी। वे भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था, खुलेपन, और उदारता से बेहद प्रभावित हैं। पाकिस्तान के आम युवाओं की शिकायत है कि भारत आर्थिक क्षेत्र में हमसे काफी आगे निकल गया और हम हैं कि आज तक भारत से मुकाबले की ही जुगत में सिर खपाते रहते हैं। सॉप्टवेयर, कंप्यूटर और अन्य तकनीकी क्षेत्रों में भारत की प्रगति से वहां के युवा बेहद प्रभावित हैं। वे खीजकर कहते हैं कि हमारे नेताओं ने तकसीम के बाद साठ साल का वक्त लड़ने-भिड़ने और हथियारों की खरीद-फरोख्त में बिता दिया, जबकि इंडिया हमसे हर मामले में आगे चला गया। हम भारत की चाहे लाख आलोचना करें, वहां कभी फौज सत्ता में नहीं आ सकती है। मगर हमारे यहां देखिए कि जम्हूरी निजाम से ज्यादा फौजी निजाम रहता है। लाहौर, कराची, इस्लामाबाद, पेशावर, फैसलाबाद, क्वेटा आदि शहरों में मीडिया, मेडिकल, इंजीनियरिंग, मैनेजमेंट आदि की पढ़ाई कर रहे शायद ही कोई ऐसा छात्र होगा, जो एक बार भारत न आना चाहता हो।
मुंबई को लेकर पाकिस्तानी युवाओं के मन में भी वही हसरत और आंखों में चमक दिखती है, जो किसी भी आम ग्रामीण और कस्बाई भारतीय युवा के मन में होती है। कराची के युवक हैरत से पूछते हैं कि क्या ऐसी ही है मुंबई? वहां तो आसानी से अमिताभ बच्चन, शाहरुख खान, दीपिका पादुकोण, विद्या बालन सड़कों पर दिख जाती होंगी? एक टीवी कार्यक्रम कैंपस-रंपस में शिरकत कर रहे सैकड़ों छात्रों ने साफगोई से कहा कि उनका धर्म-कर्म में कोई विश्वास नहीं है। उन्हें मस्जिद जाने या धार्मिक क्रिया-कलापों में शामिल होने की जरूरत महसूस नहीं होती। वे नहीं चाहते कि किसी फार्म वगैरह में धर्म के खाने में कुछ भरा जाए। यहां एक बार फिर यह याद करना मुनासिब होगा कि खुदा के लिए में नायक जब तक कट्टरपंथी मुल्ला के संपर्क में नहीं आता है, तब तक नमाज वगैरह नहीं पढ़ता है। वहां के मध्यवर्गीय लोगों की यही सचाई है। वैसे शुक्रवार को छोड़कर बाकी दिनों में नमाज पढ़ने वाले लोग वहां उस अनुपात में नहीं हैं, जिसकी हम यहां बैठकर कल्पना कर लेते हैं।
क्रिकेट के प्रशंसक युवाओं का कहना है कि जनाब जब भारत के साथ हमारी टीम खेलती है तो जाहिर है हम हर कीमत पर जीतना चाहते हैं, लेकिन जब किसी पश्चिमी देश के साथ मैच हो तो हम चाहते हैं कि मैच भारत जीते। सचिन और सहवाग सेंचुरी ठोंक कर ही पवेलियन लौटें। जश्न के मौकों पर पाकिस्तान के सिंध सूबे के युवा अपने हिंदू दोस्तों की चिरौरी करते हैं कि वे किसी तरह उन्हें शराब ख्ररीद कर ला दें, फिर वे चोरी-चोरी, चुपके-चुपके जश्न मनाते हैं। पाकिस्तान चूंकि एक इस्लामिक गणराज्य है इसलिए वहां कोई मुसलमान शराब नहीं खरीद सकता। मुसलमानों के लिए पाबंदी है। दुकानदार शराब खरीदने वाले के पहचान से संतुष्ट होने के बाद ही हिंदू, सिख या ईसाई को शराब बेचते हैं। वैसे वहां पंजाब राज्य में शराब के शौकीन पुलिस और लोगों से छिपाकर किसी तरह इसका जुगाड़ कर ही लेते हैं। लाहौर के अधिकांश युवा शराब के विरोधी हैं, लेकिन इस प्रकार के प्रतिबंध को वे उचित नहीं मानते। उनको लगता है कि प्रतिबंध की वजह से अंदर ही अंदर ये लत ज्यादा भयानक स्तर पर फैल रही है।
लाहौर मेडिकल एंड डेंटल कालेज में एम.बी.बी.एस. अंतिम वर्ष की छात्रा रुखसाना जमाल ने बताया कि इस सचाई से हम इनकार नहीं कर सकते कि शराब, व्यक्तिगत संबंध या अन्य मामलों में अधिक आजादी के बावजूद पश्चिमी देशों के युवा हमसे कहीं आगे हैं। अगर उतनी आजादी मुमकिन न हो, तो कम-से-कम इंडिया के बराबर तो होनी ही चाहिए। देख लीजिए कि जिस चीज का इलाज हम नहीं कर पाते हैं, उन मरीजों को हम भारत भेजते हैं। हम भारत में जाकर नौकरी करना चाहते हैं और मजा आए तो बस जाना चाहते हैं। मगर हम अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस या कनाडा में जाकर तो नौकरी कर सकते हैं, बस सकते हैं मगर भारत जाकर न नौकरी कर सकते हैं, न बसने की सोच सकते हैं। क्या यह कभी मुमकिन हो सकेगा?