क्या परंपरा के नाम पर किसी भी चीज को आंख मूंदकर स्वीकार किया जाना चाहिए? क्या हमेशा परंपरा की हर चीज बेहतर ही होती है और उसकी किसी चीज पर कभी वैकल्पिक तौर पर विचार नहीं किया जा सकता? दुर्भाग्य से इन्हीं सवालों से इन दिनों नेपाल को जूझना पड़ रहा है। नेपाल की राजधानी काठमांडू स्थित पशुपतिनाथ मंदिर में लगभग ढाई सौ सालों से पूजा-अर्चना संपन्न कराते आ रहे दक्षिण भारतीय पुजारियों की जगह स्थानीय पुजारियों की नियुक्ति का मामला अंतत: सुलझ गया है। दक्षिण भारतीय पुजारियों की जगह स्थानीय पुजारियों की नियुक्ति के मसले पर नेपाल के उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रतिबंध लगाए जाने के बावजूद नेपाल सरकार इस नियुक्ति पर हर हाल में अमल करना चाहती थी। सरकार में आने के बाद से प्रधानमंत्री पुष्पकमल दहल उर्फ प्रचंड नेपाल की संपूर्ण व्यवस्था को जिस तरीके से बदलना चाहते हैं, उसमें उन्हें सफलता हासिल नहीं हो पा रही है। जबकि नेपाल को गणतंत्र बनाने के बाद से उनका अगला कदम देश को धर्म निरपेक्ष बनाना भी है, जिसमें प्रतिगामी शक्तियों के कारण उन्हें समस्या आ रही है। दूसरी ओर सेना में माओवादी लड़ाकों की नियुक्ति के मसले को लेकर नेपाल के राजनीतिक दलों और सत्तारुढ़ माओवादी सरकार के बीच कायम गतिरोध को अब तक दूर नहीं किया जा सका है।
नेपाल बदल रहा है, इस हकीकत को वहां की तमाम शक्तियों को समझना चाहिए और इसका सबको एहसास भी होना चाहिए। यह बदलाव वहां व्यापक स्तर पर होना है, जिससे धार्मिक स्थल भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते। नब्बे के दशक से लोकतांत्रिक शासन-व्यवस्था लागू होने के बावजदू नेपाल के राजतांत्रिक ढांचे में बहुत अधिक फर्क नहीं पड़ा, जबकि यह परिवर्तन माओवादी सरकार के एजेंडा में प्रमुख है। पारंपरिक रूप से नेपाल नरेश ही देश के सर्वोच्च पुजारी की नियुक्ति करते थे, लेकिन राजशाही की समाप्ति के बाद माओवादियों के नेतृत्व में बनी सरकार स्थानीय पुजारियों को इस सम्मानित पद पर नियुक्त करना चाहती है। पशुपतिनाथ मंदिर में जिन राजनीतिक कारणों से नेपाली राजतंत्र ने दक्षिण भारतीय पुजारियों की नियुक्ति की थी, ऐसा लगता है कि उन्हीं राजनीतिक उद्देश्यों के तहत परंपरावादी मानसिकता के लोग नेपाल सरकार के फैसले पर प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहे हैं। संयोग से नेपाल में अभी तक नया संविधान नहीं लिखा गया है, इसलिए इस मामले पर अभी यह स्पष्ट नहीं हो सका है कि किसे पुजारियों को नियुक्त करने का अधिकार है? हालांकि देर-सबेर यह तो स्पष्ट हो ही जाएगा, लेकिन परंपरा के नाम पर विवाद पैदा करने की जगह यह भी देखा जाना चाहिए कि पशुपति एरिया डेवलपमेंट ट्रस्ट को नए पुजारियों की नियुक्ति प्रतिभा के आधार पर करने की जो सलाह दी गई है, उसे कैसे गलत कहा जा सकता है?
4 टिप्पणियां:
आप सही कह रहे हैं, "धर्मनिरपेक्ष" देश बनने की पहली शर्त यही है कि "हिन्दुओं के प्रतीक स्थानों" को मटियामेट करो… चाहे नेपाल की सीमा पर हजारों अवैध मदरसे और मस्जिदें हों, लेकिन चीन के इशारे पर पहले हिन्दुओं को लतियाओ… भारत इस मामले में कुछ भी नहीं कर सकता सिवाय मुँह देखने के… नेपाल तो बदलकर रहेगा, और बांग्लादेश-पाकिस्तान के साथ मिलकर वह भारत को भी बदलकर रहेगा… उसका साथ देने के लिये भारत में भी "धर्मनिरपे्क्ष"(?) शक्तियाँ मौजूद हैं… तरस आता है हिन्दुओं पर, लेकिन वे तो सदियों से पिटते ही रहे हैं, तो अब नया क्या है?
आपकी बात से सहमत हूं। अभी तो वहां पर बहुत कुछ बदलने वाला है। कई परंपराए टूटनी हैं। नेपाल को नौकरों का देश समझने वालों को यह समझना होगा कि अब नेपाल किसी की जागीर नहीं है। एक लोकतांत्रिक देश को धर्म निरपेक्षता का चुनाव करने का अधिकार है और मंदिर के पुजारियों को हटाने या रखने का भी। http://chaighar.blogspot.com
तरस आता है हिन्दुओं पर, लेकिन वे तो सदियों से पिटते ही रहे हैं, तो अब नया क्या है?
जिस कौम का एक सूत्री काम हो अपने पैर पर कुल्हाडी मारना उससे और उम्मीद ही क्या की जा सकती है ? हिन्दू के अलवा विश्व में हर कौम अपने लोगों की तरफ बोलती है. पाकिस्तान की ही तरफ देखें ,वो खुद तो इस्लामी देश है मगर भारत के हिंदुत्व को ग़लत ठहराता है और धर्मनिरपेक्षता में ही अल्पसंख्यकों के हितों की बात करता है. क्या किसी में हिम्मत है की पाकिस्तानी अल्पसंख्यक यानि हिन्दुओं की बदतर हालत पर जुबान भी हिलाए ? अगर धर्मनिरपेक्षता में ही अल्पसंख्यक-हित निहित है तो क्या पाकिस्तान धर्मनिरपेक्ष देश बनना पसंद करेगा? हास्यास्पद प्रश्न है न ? हर मुसलमान अपने धर्म पर गर्व करता है. वैसे हर व्यक्ति को अपने धर्म के प्रति वफादार होना चाहिए और अपने हित की बात सोचनी चाहिए . नेपाल विश्व का एकमात्र हिन्दू देश था पर वो भी धर्मनिरपेक्षता की बलि चढ़ गया. प्रचंड को राष्ट्रपति बनना था इसलिए यह सब नाटक चीन के इशारे पर किया . कोई कुछ नहीं बोला क्यों की हिन्दू विघटित हैं, वो अपने हितों पर खुद लात मारते हैं. वो कौम का फ़ायदा नहीं अपना फ़ायदा देखते हैं. हिन्दू लतियाए जाएँ यही ठीक हैं न पंकज जी ?वैसे आप ज़रूर वामपंथी होंगे. हैं न ? शायद आप मेरी टिप्पणी भी न छापें, क्यों ठीक है न ?
मीनू जी,
आपकी टिप्पणी हम पूरे आदर के साथ दे रहे हैं। विरोधी तर्कों को जगह न देना घोर अलोकतांत्रिक कदम है. सहमति-असहमति हमारा मौलिक अधिकार है और इसकी हिफाजत किये बगैर बहस संभव नहीं हो सकती है।
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