मुंबई में देश के सबसे बड़े आतंकी हमले के बाद वहां की आम लोग जहां एनएसजी कमांडो और सुरक्षा बलों की हर कामयाबी पर भारत माता के नारा लगा रहे थे, वहीं जन गण के भाग्य विधाता बने हुए अधिनायकों के प्रति बेहद गम-ओ-गुस्से का इजहार कर रहे थे। देश के जिन पहरुओं पर आतंककारी ताकतों के खिलाफ हरसंभव कड़ी कार्रवाई करने की महती जिम्मेदारी है, वे इसकी जगह प्रत्येक आतंकी हमले के बाद अनुग्रह राशियों की राजनीति करने शहीदों के घर पहुंचकर किसी भी स्थिति को वोट बैंक बनाने के लिए पहुंच जाते हैं। बेहद क्षोभ की बात यह है कि पिछले कुछ सालों से ऐसी राजनीति से तंग आ चुकी जनता में इन दिनों नेताओं को लेकर जितना गुस्सा और आक्रोश है, वह इससे पहले शायद कभी नहीं देखा गया। इस वजह से देश की राजनीति में हड़कंप ऐसी स्थिति पहले कभी नहीं आई। जब सैकड़ों लोगों की जान चली गई, हजारों अनाथ हो गए, तब जाकर भारत के भाग्य विधाताओं की अंतरात्मा ने उन्हें इस्तीफा देने के लिए उत्प्रेरित किया। वहीं सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पैरोकारों ने जिस तरह जनता के आक्रोश पर प्रतिक्रिया जाहिर की है, वह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है।
राजनीति के इस विकृत रूप का ही परिणाम है कि मुंबई की घटना में अपने इकलौते पुत्र को खो चुके शहीद मेजर संदीप उन्नीकृष्णन के पिता ने केरल और कर्नाटक के मुख्यमंत्रियों से मिलने से इनकार कर दिया और शहीद हेमंत करकरे की विधवा ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के सहायता राशि की पेशकश को ठुकरा दिया। हर उम्र और हर वर्ग के लोगों में नेताओं के प्रति इतना अधिक गुस्सा है कि कई और नेता जनता के गुस्से का शिकार हो चुके हैं। मगर धैर्यपूर्वक जनता की भावनाओं को समझने की जगह नेतागण बौखलाहट भरी प्रतिक्रिया में इसे कुछ मुट्ठी भर लोगों की पश्चिमपरस्ती और अराजकतावादी कदम ठहरा रहे हैं। जबकि मीडिया में आम लोगों की प्रतिक्रियाएं जिस तादाद में आ रही हैं, उससे स्पष्ट है कि देशभर की जनता सीधे-सीधे कड़ी और गंभीर कार्रवाई चाहती है, न कि अनंत काल तक इसके लिए सिर्फ आश्वासन। इस वक्त देश की जो स्थिति है, उसको बेहद अहम तरीके से जर्मन कवि बर्तोल्त ब्रेख्त की यह कविता अभिव्यक्त करती है :
अखबार का हॉकर सड़क पर चिल्ला रहा था
कि सरकार ने जनता का विश्वास खो दिया है
अब कड़े परिश्रम, अनुशासन और दूरदर्शिता के अलावा
और कोई रास्ता नहीं बचा है
एक रास्ता और है
कि सरकार इस जनता को भंग कर दे
और अपने लिए दूसरी जनता चुन ले।
राजनीति के इस विकृत रूप का ही परिणाम है कि मुंबई की घटना में अपने इकलौते पुत्र को खो चुके शहीद मेजर संदीप उन्नीकृष्णन के पिता ने केरल और कर्नाटक के मुख्यमंत्रियों से मिलने से इनकार कर दिया और शहीद हेमंत करकरे की विधवा ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के सहायता राशि की पेशकश को ठुकरा दिया। हर उम्र और हर वर्ग के लोगों में नेताओं के प्रति इतना अधिक गुस्सा है कि कई और नेता जनता के गुस्से का शिकार हो चुके हैं। मगर धैर्यपूर्वक जनता की भावनाओं को समझने की जगह नेतागण बौखलाहट भरी प्रतिक्रिया में इसे कुछ मुट्ठी भर लोगों की पश्चिमपरस्ती और अराजकतावादी कदम ठहरा रहे हैं। जबकि मीडिया में आम लोगों की प्रतिक्रियाएं जिस तादाद में आ रही हैं, उससे स्पष्ट है कि देशभर की जनता सीधे-सीधे कड़ी और गंभीर कार्रवाई चाहती है, न कि अनंत काल तक इसके लिए सिर्फ आश्वासन। इस वक्त देश की जो स्थिति है, उसको बेहद अहम तरीके से जर्मन कवि बर्तोल्त ब्रेख्त की यह कविता अभिव्यक्त करती है :
अखबार का हॉकर सड़क पर चिल्ला रहा था
कि सरकार ने जनता का विश्वास खो दिया है
अब कड़े परिश्रम, अनुशासन और दूरदर्शिता के अलावा
और कोई रास्ता नहीं बचा है
एक रास्ता और है
कि सरकार इस जनता को भंग कर दे
और अपने लिए दूसरी जनता चुन ले।
1 टिप्पणी:
बहुत बढिया और सामयिक रचना है।सही विचार प्रेषित किए हैं।
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