यह दुखद है कि जब विपक्ष आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई को लेकर समवेत स्वर में सरकार के साथ होने की बात कर रहा हो, तब सरकार में ही शामिल अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री एआर अंतुले ने महाराष्ट्र एटीएस के प्रमुख शहीद हेमंत करकरे की मौत पर ऐसा बयान दिया है, जो राजनीति से बहुत अधिक दुष्प्रेरित प्रतीत होता है। उनका कहना है कि शहीद हेमंत करकरे आतंकवादी घटना के समय होटल ताज या ओबेरॉय न जाकर कामा अस्पताल के पास क्यों गए, जबकि इन होटलों में बड़ी कार्रवाई हुई और कामा अस्पताल का नाम भी किसी ने नहीं सुना था? उन्होंने शहीद करकरे की मौत पर सवालिया निशान लगाते हुए यहां तक कहा कि इसमें संदेह है कि पाकिस्तानी आतंकवादियों ने ही उन्हें मारा हो, हो सकता है मालेगांव धमाकों की जांच के मामले में उन्हें मारा गया हो? गौरतलब है कि मालेगांव जांच मामले में कर्नल पुरोहित और साध्वी प्रज्ञा ठाकुर पर शक जाहिर होने और पूछताछ के लिए उन्हें हिरासत में लिए जाने के बाद राजनेताओं ने उनके ऊपर भेदभाव के आरोप लगाए थे। इससे दुखी उनके परिजनों ने मुंबई हमले के बाद गुजरात के मुख्यमंत्री द्वारा घोषित एक करोड़ रुपये अनुग्रह राशि की पेशकश को ठुकरा दिया। हालांकि एआर अंतुले के इस बयान से कांग्रेस ने खुद को अलग करने की बात की है और कहा है कि पार्टी उनसे सहमत नहीं है।
आतंकवादी घटनाओं के दौरान और उसके बाद पुलिस मुठभेड़ में होने वाली मौतों को लेकर की जाने वाली वोट बैंक की राजनीति भारतीय परिप्रेक्ष्य में कोई नई घटना नहीं है। 13 सितंबर को हुए दिल्ली बम विस्फोट के सिलसिले में बाटला हाउस मुठभेड़ में शहीद दिल्ली पुलिस के इंसपेक्टर मोहन चंद्र शर्मा की मौत को लेकर इसी तरह के विवाद और बयानबाजी के बाद शहीद शर्मा के परिजनों ने समाजवादी पार्टी नेता अमर सिंह की सहायता राशि ठुकरा दी थी। सवाल यह है कि भ्रष्टाचार के मामले में या किसी भी कानूनी मामले में जब किसी राजनेता की गर्दन फंसती है, तो वे कहते हैं कि जब तक न्यायालय किसी को दोषी नहीं ठहराता, तब तक उसे दोषी कैसे माना जा सकता है? इसलिए किसी मुठभेड़ के बाद जब तक सब कुछ पूरी तरह स्पष्ट नहीं हो जाता, तब तक संदेह और दोषारोपण की राजनीति को कैसे न्यायसंगत ठहराया जा सकता है? क्षोभ की बात यह है कि आतंकवादी को सिर्फ आतंकवादी मानकर मुकाबला करने के बजाए हमारे राजनेता आतंकवादियों को धर्म और धड़ों में बांटकर वर्गीकरण की राजनीति करने लगते हैं।
आतंकवाद का दृढ़ता से मुकाबला करने वाले अमेरिका, ब्रिटेन, इजरायल या किसी भी पश्चिमी देश के राजनीतिज्ञ इस तरह के संवेदनशील मुद्दे पर वर्गीकरणवादी राजनीति नहीं करते, जबकि भारतीय नेताओं को शायद इस तरह की जिम्मेदारी की जरूरत महसूस नहीं होती। अब भी अगर हमारे नेता वगीüकृत मानसिकता से आतंकवाद का मुकाबला करने की बात करते हैं, तो यह न सिर्फ बेहद अक्षम्य और गैर जिम्मेदाराना राजनीति का परिचायक है, बल्कि अक्षम्य भी।
3 टिप्पणियां:
अन्तुले तो खुद ISI का एजेन्ट लगता है. धिक्कार है ऐसे नेता और ऐसी क़ौम पर !
भारत के मुस्लीमो को आगे आना होगा तथा भारतीय परम्पराओ के अनुरुप अन्य धार्मिक जीवन पद्धति के सहअस्तित्व को खुल कर स्वीकार कारना होगा। और यह समझना होगा की भारत के हिन्दु और मुस्लामान के पुर्वज एक ही थे, भारत-पाकिस्तान के अलग0अलग अस्तित्व को भी नकाराना होगा। यही सास्वत समाधान है।
देश के नेता देश के प्रति गैर जिम्मेदाराना रवैया अपना रहे है यह सच है . सटीक पोस्ट.
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