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कठिन है रहगुज़र थोड़ी दूर साथ चलो/बहुत बड़ा है सफ़र थोड़ी दूर साथ चलो/तमाम उम्र कहाँ कोई साथ देता है/मैं जानता हूँ मगर थोड़ी दूर साथ चलो
बुधवार, दिसंबर 31, 2008
अतीत होते साल का विदागीत
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मंगलवार, दिसंबर 30, 2008
सार्वजनिक स्थलों पर धूम्रपान प्रतिबंधित होने का साल
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सोमवार, दिसंबर 29, 2008
अलग-अलग रहने वाले अभिशप्त
अमरनाथ जमीन विवाद को लेकर चले लंबे संघर्ष को हालांकि भाजपा ने जनता का स्व:स्फूर्त संघर्ष बताया था। मगर जम्मू के चुनाव परिणाम से यह स्पष्ट हो गया कि अमरनाथ कार्ड खेलने से भाजपा को फायदा हुआ। वहीं घाटी में पीडीपी और नेशनल कांफ्रेंस ने जिस नीयत से भावनात्मक मुद्दों को उछाला उसमें काफी हद तक उन्हें सफलता मिली। जम्मू-कश्मीर की जनता नेशनल कांफ्रेंस, कांग्रेस और पीडीपी तीनों को सत्ता सौंपकर आजमा चुकी है। खंडित जनादेश के बाद राज्य में जो गठबंधन सरकार बनेगी, वह निश्चय ही अपने दम पर सरकार बनाने वाली पार्टी की तरह निरंकुश रवैया अख्तियार नहीं कर पाएंगी। दूसरी ओर अलगाववादियों के चुनाव बहिष्कार के आह्वान के बावजूद रिकॉर्ड संख्या में लगभग 62 फीसदी मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग करके उन्हें कड़ा संदेश दिया है कि व्यापक जनमत की आस्था लोकतांत्रिक राजनीति में है। प्रतिकूल मौसम और अब तक के इतिहास में सबसे लंबी चुनाव प्रक्रिया में सात चरणों में मतदान के कारण इतने बड़े पैमाने पर मतदान की उम्मीद कम थी, लेकिन राज्य की जनता तमाम आशंकाओं को ध्वस्त कर दिया। मुजफ्फराबाद चलो और हमारी मंडी रावलपिंडी का नारा देने वाले अलगाववादियों को जनता ने स्पष्ट संदेश दिया है कि यदि उनकी आस्था लोकतांत्रिक राजनीति में नहीं है, तो मुख्य धारा की राजनीति से बाहर रहने के लिए अभिशप्त होंगे। उम्मीद की जानी चाहिए कि जम्मू-कश्मीर के मतदाताओंने लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में जैसा उत्साह और विश्वास व्यक्त किया है, राज्य की गठबंधन सरकार उस पर खरे उतरने का पूरा प्रयत्न करेगी।
शुक्रवार, दिसंबर 26, 2008
आटा के लिए युद्ध लड़ते लोगों की ओर नहीं देखते पाक हुक्काम
9/11 के बाद आतंकवाद के खात्मा के मुद्दे पर अमेरिका का सहयोगी बना पाकिस्तान आतंकियों पर ठोस कार्रवाई करने के बजाए तमाम समस्याओं से पाकिस्तानी जनता सहित पूरे विश्व समुदाय का ध्यान युद्ध पर केंद्रित करने की रणनीति पर अमल कर रहा है। इसलिए अंतराराष्ट्रीय समुदाय को परमाणु हथियारों के इस्तेमाल की चिंता सताने लगी है। क्योंकि कहने को तो परमाणु हथियारों की कमान पाकिस्तानी राष्ट्रपति के हाथों में है, लेकिन वास्तविक तौर इसकी कमान पाकिस्तानी थल सेना के हाथों में है। सामरिक विशेषज्ञ यह आशंका जाहिर कर रहे हैं कि भारत पर युद्ध थोपने के बाद पाकिस्तानी सेना का कोई कट्टरपंथी तत्व उन्माद में आकर परमाणु मिसाइल चलाने का फैसला कर ले। हैरत की बात यह है कि अमेरिका सहित पूरे विश्व समुदाय ने आतंकवादी घटनाओं में पाकिस्तान की संलिप्तता के बारे में भारत के सबूतों से इत्तफाक जाहिर किया है, लेकिन बयान बहादुर पाकिस्तानी नेता जले पर नमक छिड़कने की तरह लगातार सबूत-राग अलापते हुए भारत से ठोस सबूतों की मांग कर रहे हैं। इसके बावजूद भारत को दबाव बनाने के सभी कूटनीतिक और राजनैतिक उपायों को टटोलने के बाद ही हमले के विकल्प पर विचार करना चाहिए। क्योंकि पिछले छह दशकों का इतिहास इस बात का गवाह है कि अंतत: युद्ध से समस्याएं हल नहीं होती हैं। अपनी पाकिस्तान यात्रा में मैंने देखा था कि आटे-दाल की भारी किल्लत रावलपिंडी शहर में थी और जनता दुकानों पर दंगे-फसाद पर उतारू थी। क्वेटा, पेशावर, बहावलपुर, हैदराबाद आदि शहरों में शाम ढलते ही लोग घरों में दुबक जाते थे। इसकी चिंता करने की जगह पाकिस्तानी हुक्मरान भारत से लड़ने के लिए ताल ठोंक रहे हैं।
इस मर्ज की दवा क्या है?
बेहद क्षोभ की बात है कि सत्ता के नशे में चूर नेताओं की निरंकुश राजनीति की यह शैली कोई नई नहीं है। पिछले ही साल बसपा के एक सांसद ने अपने क्षेत्र में रातोरात कई दुकानों पर बुलडोजर चलवा दिया था और विरोध कर रहे दुकानदारों पर फायरिंग करवाई थी। मुलायम राज में एक पुलिस अधिकारी को राजधानी लखनऊ में कुछ नेता पुत्रों ने जीप के बोनट पर शहर भर में घुमाया था। लगभग डेढ़ दशक पूर्व बिहार के गोपालगंज जिले के तत्कालीन जिलाधिकारी जी. कृष्णैया की हत्या इसी तरह पीट-पीटकर आनंद मोहन के नेतृत्व में की गई थी। दुर्भाग्य से कई-कई हत्याओं का मुकदमा झेल रहे आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों के राजनीति में आने के बाद से ऐसी ढेरों मिसालें कायम हुई हैं। जो विधायिका कानून बनाने का अधिकार रखती है, उसमें कानून को हाथ में लेने वाले लोगों की बढ़ती हुई संख्या को ध्यान में रखकर डेढ़ दशक पहले वोहरा कमिटी की रिपोर्ट संसद के पटल पर रखी गई थी, लेकिन वह रिपोर्ट आज तक ठंडे बस्ते में पड़ी हुई है।
दिक्कततलब बात यह है कि आज कमोबेश हर दल में आपराधिक पृष्ठभूमि के सांसद और विधायक हैं। इसलिए वोहरा कमिटी की रिपोर्ट पर दोबारा विचार करने की जरूरत किसी राजनीतिक दल ने आज तक महसूस नहीं की। औरैया की इस घटना के बाद भी यदि राजनीति में आपराधिक पृष्ठभूमि के नेताओं की बढ़ती संख्या पर विचार नहीं करते हैं, तो लोकतंत्र के लिए यह बेहद अशुभ संकेत है।
गुरुवार, दिसंबर 25, 2008
बुर्जुआ की तरह जनता और प्रेस का गला न दबाएं
हालांकि माओवादी पार्टी के प्रधानमंत्री पुष्पकमल दहल उर्फ प्रचंड ने इन हमलों में अपनी पार्टी की भूमिका से इनकार किया है और उन लोगों को दोषी बताया है, जो अपने आपको माओवादी बता कर पार्टी को बदनाम कर रहे हैं। इन हमलों की जांच कराने का आश्वासन देते हुए उन्होंने वचन दिया है कि अपराधियों को दंडित किया जाएगा। प्रचंड सरकार बनने से पहले ही नेपाली मीडिया में यह एक गंभीर मुद्दा था कि सैकड़ों माओवादी गुरिल्लों को सेना में शामिल किया जाए या नहीं? दूसरा यह कि यदि उन्हें सेना में शामिल किया गया तो क्या वे अपनी पार्टी लाइन से अलग हटकर निष्पक्ष तरीके से कामकाज कर पाएंगे? अपने निरंकुश कार्यकर्ताओं से माओवादी सरकार क्या निष्पक्ष तरीके से निपटेगी? क्योंकि आंदोलन चलाना उसका नेतृत्व करना एक बात है, जबकि सरकार चलाना बिल्कुल दूसरी बात। इनका एहसास स्वयं प्रधानमंत्री प्रचंड को है और हाल ही में उन्होंने कहा था कि सरकार चलाना आसान काम नहीं है। लोकतांत्रिक तरीके से सत्ता में आई माओवादी सरकार यदि अपने कार्यकर्ताओं की ऐसी हरकतों से सख्ती से निपटेगी तो यह नेपाल की स्थिरता और नवजात गणतांत्रिक व्यवस्था, दोनों के लिए नुकसानदेह साबित हो सकता है।
सोमवार, दिसंबर 22, 2008
मृत्यु के बारे में अख्तरुल ईमान के कुछ शब्द-
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रविवार, दिसंबर 21, 2008
क्रिकेट खेल लेने से मुर्दे जी उठेंगे क्या?
भारत सरकार के कड़े रुख के बाद पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड यानी पीसीबी ने इस दौरे को बचाने के लिए पूरा प्रयत्न किया और किसी तीसरे स्थान पर मैच कराने तक का प्रस्ताव रखा, मगर भारत सरकार के बेहद कड़े रुख के बाद बीसीसीआई पाकिस्तान के साथ फिलहाल क्रिकेट संबंध जारी रखने के पक्ष में नहीं है। गौरतलब है कि इस दौरे में भारत-पाकिस्तान के क्रिकेट टीम के बीच तीन टेस्ट मैच, पांच एकदिवसीय मैच और एक ट्वेंटी-20 मैच खेलना था।
आतंकवाद के मुद्दे पर संयुक्त राष्ट्र संघ सहित पूरी दुनिया में भारत जिस सक्रियता से पाकिस्तान की करतूतों को लेकर कूटनयिक स्तर पर अभियान चला रहा है, उसके बाद वैसे भी सामान्य संबंध की गुंजाइश नहीं बचती है। क्योंकि यदि भारत खुद पाकिस्तान के साथ सामान्य संबंध बनाकर रखता है, तो बाकी देशों को वह आखिर किस नजरिये से पाकिस्तान को अलग-थलग करने के लिए कह पाएगा? इस बीच पीसीबी की पाबंदी झेल रहे इंजमाम-उल-हक ने बीसीसीआई से दौरे रद्द नहीं करने को लेकर आग्रह किया था। बकौल इंजमाम-उल-हक, भारतीय टीम के पाकिस्तान दौरा रद्द होने से इस उप महाद्वीप में क्रिकेट को बहुत बड़ा झटका लगा है। दूसरी ओर बेहद खस्ताहाल पीसीबी को टीम इंडिया का दौरा रद्द होने के कारण लगभग दो करोड़ डॉलर की संभावित आय से हाथ धोना पड़ सकता है।
2004 में 15 साल बाद जब टीम इंडिया ने पाकिस्तान का दौरा किया था, तो पीसीबी को लगभग दो करोड़ डॉलर की आमदनी हुई थी। हैरत की बात है कि पीसीबी और पाकिस्तानी क्रिकेट टीम के पुराने खिलाड़ी महज अपने लाभ को ध्यान में रखकर तब भी टीम इंडिया से दौरे की बात कर रहे हैं, जब शुरू से ही पाकिस्तान की तमाम सरकारें भारत के साथ सौहार्द और सौजन्य के तमाम दरवाजे बंद करती आई है। आतंकवाद को लेकर भारत सरकार की अपनी चिंताएं हैं और उन चिंताओं में देश का हर नागरिक सरकार के साथ है, चाहे वह जिस भी पेशे से जुड़ा व्यक्ति हो। ऐसे माहौल में टीम इंडिया से दौरे के लिए पीसीबी प्रमुख के इसरार का इसलिए भी कोई मतलब नहीं है, क्योंकि बाकी तमाम मामलों में जब संबंध खराब हों, तो महज क्रिकेट खेलने से देशों के संबंधों में सुधार नहीं आता। अर्थव्यवस्था के स्तर पर बेहद बुरे दौर से गुजर रहे पाकिस्तान के लिए टीम इंडिया का दौरा रद्द होना चिंता का विषय हो सकता है, लेकिन भारत की नहीं। आतंकियों पर कार्रवाई को लेकर जब तक भारत सरकार मुतमईन नहीं होती, पाकिस्तान के साथ किसी भी तरह के संबंध का कोई खास मतलब नहीं होगा।
शुक्रवार, दिसंबर 19, 2008
बेहद अक्षम्य और गैर जिम्मेदाराना राजनीति
आतंकवादी घटनाओं के दौरान और उसके बाद पुलिस मुठभेड़ में होने वाली मौतों को लेकर की जाने वाली वोट बैंक की राजनीति भारतीय परिप्रेक्ष्य में कोई नई घटना नहीं है। 13 सितंबर को हुए दिल्ली बम विस्फोट के सिलसिले में बाटला हाउस मुठभेड़ में शहीद दिल्ली पुलिस के इंसपेक्टर मोहन चंद्र शर्मा की मौत को लेकर इसी तरह के विवाद और बयानबाजी के बाद शहीद शर्मा के परिजनों ने समाजवादी पार्टी नेता अमर सिंह की सहायता राशि ठुकरा दी थी। सवाल यह है कि भ्रष्टाचार के मामले में या किसी भी कानूनी मामले में जब किसी राजनेता की गर्दन फंसती है, तो वे कहते हैं कि जब तक न्यायालय किसी को दोषी नहीं ठहराता, तब तक उसे दोषी कैसे माना जा सकता है? इसलिए किसी मुठभेड़ के बाद जब तक सब कुछ पूरी तरह स्पष्ट नहीं हो जाता, तब तक संदेह और दोषारोपण की राजनीति को कैसे न्यायसंगत ठहराया जा सकता है? क्षोभ की बात यह है कि आतंकवादी को सिर्फ आतंकवादी मानकर मुकाबला करने के बजाए हमारे राजनेता आतंकवादियों को धर्म और धड़ों में बांटकर वर्गीकरण की राजनीति करने लगते हैं।
आतंकवाद का दृढ़ता से मुकाबला करने वाले अमेरिका, ब्रिटेन, इजरायल या किसी भी पश्चिमी देश के राजनीतिज्ञ इस तरह के संवेदनशील मुद्दे पर वर्गीकरणवादी राजनीति नहीं करते, जबकि भारतीय नेताओं को शायद इस तरह की जिम्मेदारी की जरूरत महसूस नहीं होती। अब भी अगर हमारे नेता वगीüकृत मानसिकता से आतंकवाद का मुकाबला करने की बात करते हैं, तो यह न सिर्फ बेहद अक्षम्य और गैर जिम्मेदाराना राजनीति का परिचायक है, बल्कि अक्षम्य भी।
मंगलवार, दिसंबर 16, 2008
क्यों अमेरिकी जनता दुनिया के नफरत की शिकार होती है?
सोमवार, दिसंबर 15, 2008
शहीदों के प्रति संवदेनहीनता की हद
रविवार, दिसंबर 14, 2008
दारुल-हर्ब से दारुल-इस्लाम बनाने के उस्ताद
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शुक्रवार, दिसंबर 12, 2008
कफन बेचने वाले से जिंदा छोड़ देने की अपील
रविवार, दिसंबर 07, 2008
इंसानियत के बौने पड़ते जाने का बराबर डर बना रहा
नारों, जुलूसों और अतिवादी-अस्मितावादी राजनीति के कारण जब भी दंगे-फसाद होते हैं, आतंकी हमले होते हैं, तो सियासत से मजहब से कोसों दूर देश के दिहाड़ी मजदूर, गरीब कामकाजी वर्ग के लोग ही इसकी बलि चढ़ते हैं। पिछले कुछ समय से विजय और दुख व्यक्त करने वालों के पाटन में पिछले एक-डेढ़ दशक से पिसने वाली गरीब जनता कल भी रोटी के लिए जीवन-संघर्ष करने निकलेगी, मगर मजहब की सियासत के कारण इंसानियत के बौने पड़ते जाने का बराबर डर बना रहा। ताजा जनगणना रिपोर्ट को देखें तो इस देश में स्कूल और अस्पतालों की संख्या से ज्यादा धार्मिक स्थल हैं, मगर और-और धार्मिक स्थलों के निर्माण की अनंत कड़ी अनवरत जारी है। वह सामाजिक ताना-बाना, जिसमें एक के बगैर दूसरे का बिल्कुल काम नहीं चलता था, अब इतिहास बनता जा रहा है। वर्तमान राजनीति का यह सबसे डरावना पक्ष है कि जब अदालतों में लाखों मुकदमे लंबित हैं और सालों से लोग न्याय की बाट जोहते रहते हैं, तब अदालतों और संवैधानिक प्रक्रिया से बाहर सियासत के खुदमुख्तार काजी अपनी शैली में इंसाफ करने में मुब्तिला हैं। छह दिसबंर, 1992 के बाद से आज तक देश के अनेक भागों में, अनेक तरीकों से वे अपने-अपने हिसाब से इंसाफ कर रहे हैं। उनके इंसाफों से घायल दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र डिगते आत्मविश्वास और हिलती हुई बुनियाद के कारण संक्रमण के दौर से गुजर रहा है।
विभाजनकारी राजनीति के कारण पहले देश टुकड़ों में बंटा, पांच लाख लोग तब सांप्रदायिक हिंसा के शिकार हुए थे और तकरीबन दस लाख लोग बेघरबार हुए थे। जिसका घाव अब भी बुजुर्गों के सीने में हरा हो जाता है। वक्त का तकाजा यह है कि विजय और दुख व्यक्त करने वालों और उनसे अलग अपनी कथित प्रतिबद्धताओं के कारण उनकी आलोचनाओं में मुब्तिला लोगों को अब भी उस देश के बारे में सोचना चाहिए, जिसमें प्रत्येक नागरिक को निर्भीक, स्वतंत्र और लोकतांत्रिक तरीके से जीने का हक हो. पता नहीं यह सपना कब सपना से हकीकत में बदलेगा?
बुधवार, दिसंबर 03, 2008
वे हक्का-बक्का कर देना चाहते हैं सबको
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अंग्रेजी में कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक और निबंध लेखन। अनेक पुस्तकें प्रकाशित। नाईजीरिया के गृहयुद्ध को विषय बनाकर कई उपन्यास लिखे। हाल में उनके लिखे अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव संबंधी संस्मरण (संदर्भ-बराक ओबामा) खास चर्चित रहे। इन दिनों ब्रिटेन में रहते हैं। हमारे अग्रज आदरणीय यादवेंद्र जी ने इसे उपलब्ध कराया है और ख्वाब का दर के लिए हिंदी में अनूदित किया है।
वे चाहते हैं आजाद होना
वे नहीं चाहते बंध जाना किसी परिभाषा की गिरफ्त में
वे चाहते हैं पूरा-पूरा हक सर्जना का
वे नहीं चाहते अनुकंपा या बंधना सोच के किसी चौखट में
वे आजादी से हासिल
वे चाहते हैं पराजित हो जाना हिम्मत हारे बगैर
वे संतानें हैं स्वप्न की
सोमवार, दिसंबर 01, 2008
सरकार इस जनता को भंग करके दूसरी जनता चुन ले
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राजनीति के इस विकृत रूप का ही परिणाम है कि मुंबई की घटना में अपने इकलौते पुत्र को खो चुके शहीद मेजर संदीप उन्नीकृष्णन के पिता ने केरल और कर्नाटक के मुख्यमंत्रियों से मिलने से इनकार कर दिया और शहीद हेमंत करकरे की विधवा ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के सहायता राशि की पेशकश को ठुकरा दिया। हर उम्र और हर वर्ग के लोगों में नेताओं के प्रति इतना अधिक गुस्सा है कि कई और नेता जनता के गुस्से का शिकार हो चुके हैं। मगर धैर्यपूर्वक जनता की भावनाओं को समझने की जगह नेतागण बौखलाहट भरी प्रतिक्रिया में इसे कुछ मुट्ठी भर लोगों की पश्चिमपरस्ती और अराजकतावादी कदम ठहरा रहे हैं। जबकि मीडिया में आम लोगों की प्रतिक्रियाएं जिस तादाद में आ रही हैं, उससे स्पष्ट है कि देशभर की जनता सीधे-सीधे कड़ी और गंभीर कार्रवाई चाहती है, न कि अनंत काल तक इसके लिए सिर्फ आश्वासन। इस वक्त देश की जो स्थिति है, उसको बेहद अहम तरीके से जर्मन कवि बर्तोल्त ब्रेख्त की यह कविता अभिव्यक्त करती है :
अखबार का हॉकर सड़क पर चिल्ला रहा था
कि सरकार ने जनता का विश्वास खो दिया है
अब कड़े परिश्रम, अनुशासन और दूरदर्शिता के अलावा
और कोई रास्ता नहीं बचा है
एक रास्ता और है
कि सरकार इस जनता को भंग कर दे
और अपने लिए दूसरी जनता चुन ले।
रविवार, नवंबर 30, 2008
आतंकवाद की राजनीति के बाद अब राजनीतिक आतंकवाद
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शुक्रवार, नवंबर 28, 2008
मुंबई की नृशंस घटना पर कराची, पाकिस्तान से हफ़ीज़ चाचड़
कुछ दिन पहले विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने ख़ुफिया एजेंसी ईएसई के राजनीतिक पाथ (Political Wing) को ख़त्म करने की घोषणा की थी जो चुनाव में धांधली और राजनेताओँ को ब्लैकमेल करने में लिप्त रहा है. विदेश मंत्री की घोषणा के थोड़े समय बाद एक वरिष्ट सैन्य अधिकारी ने कहा कि ऐसा कुछ भी नहीं है.
गुरुवार, नवंबर 27, 2008
भारत की छवि एक लुंजपुंज देश की बनती जा रही है
मुंबई के पूरे घटनाक्रम को ध्यान से देखें तो आतंकवादी होटलों में विदेशी मेहमानों के पासपोर्ट की तलाशी ले रहे थे और ब्रिटिश तथा अमेरिकी नागरिकों को बंधक बना रहे थे। जिससे साबित होता है कि इन देशों की सुरक्षा व्यवस्था अब इतनी पुख्ता और सख्त है कि वहां किसी भी तरीके से आतंकी नृशंस घटनाओं को अंजाम देने में बेहद कठिनाई महसूस कर रहे हैं। इसलिए इन देशों के आम नागरिकों को आतंकवादी अब दूसरे देशों में निशाना बनाने लगे हैं। आतंकवादियों ने ताज और ओबेरॉय होटल को काफी सोच-समझकर निशाना बनाया है, क्योंकि इन होटलों में सैकड़ों विदेशी पर्यटक ठहरते हैं। इसलिए सुरक्षा मामलों के विशेषज्ञों को यह कहना बिल्कुल सही है कि आतंकवादियों ने अनायास इन होटलों को निशाना नहीं बनाया। यह सब जान-बूझकर और काफी सोच-समझकर किया गया है। कुछ टीवी चैनलों को ईमेल भेजकर डेकन मुजाहिदीन नामक संगठन ने इन घटनाओं की जिम्मेदारी ली है, जिसका नाम इससे पहले कभी नहीं सुना गया। इसलिए आतंकवादियों की यह एक रणनीति भी हो सकती है, ताकि सही दिशा में चलने वाली जांच को गुमराह किया जा सके। आतंकी हमलों के बाद सरकार के रटे-रटाए जुमले सुन-सुनकर आम जनता यह मानने लगी है कि हुक्मरानों की नजर में आम लोगों की जान की कीमत कुछ खास नहीं है। इसलिए लगातार हो रही आतंकवादी घटनाओं के कारण देश के भीतर जन-आक्रोश बढ़ता जा रहा है। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि आतंकवादी घटनाओं के बाद इससे निपटने के लिए जितने भी तरीकों पर चर्चा होती है, उसके बारे में अब तक के अनुभवों से यही दिख रहा है कि सारी कवायद शायद चर्चाओं तक ही सिमटकर रह जाता है। वक्त का यही तकाजा है कि आतंकवाद पर किसी भी तरह के सियासत को परे रखकर पूरा ध्यान गंभीरता से ठोस कार्रवाई पर केंद्रित किया जाए।
शुक्रवार, नवंबर 21, 2008
पूरे पाकिस्तान में 'निराला' की मिठाई और रामापीर का मेला...
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कराची के बनारस चौक, सहारनपुर कालोनी, यू.पी. कालोनी-वहां की बोली-बानी, पहनावा और खान-पान से जरा भी नहीं लगता कि आप बनारस में नहीं हैं. विभाजन के इतने बरस के बाद भी सब कुछ जस के तस है. अपने यहां निराला कहते ही कवि महाप्राण निराला की याद आती है, मगर जिस तरह दिल्ली में नाथू स्वीट्स और अग्रवाल स्वीट्स की पूरी चेन है उसी तरह निराला नामक मिठाई की दुकान की पूरी चेन है-पूरे पाकिस्तान में. वहां के लोगों के मन में अंधविश्वास की हद तक यह बात पैठी हुई है कि बेहतर मिठाई तो सिर्फ हिंदू ही बना सकता है। इसलिए वहां मिठाई की दुकानों में सिंध के हिंदू कारीगरों की मांग बहुत रहती है। बहरहाल, यहां यह बताते चलें कि इस्लामिक राष्ट्र पाकिस्तान में इस वक्त तकरीबन पच्चीस लाख से ऊपर हिंदुओं की संख्या है और रामापीर का जो मेला सिंध में लगता है, उसमें बढ़-चढ़कर हिंदू भाग लेते हैं. रामापीर के मेले में असल में दलित वर्ग के हिंदुओं की भागीदारी ज्यादा रहती है. उच्च और धनी तबके के लोग वहां से पहले ही भाग आए या दंगों में मारे गए या मार दिए गए. बचे हैं दलित वर्ग के अधिकांश लोग. उनकी कहानियां हम विस्तार से आपको बताते रहेंगे. फिलहाल आपको दिखा रहे हैं रामापीर मेले की कुछ तस्वीरें....
बुधवार, नवंबर 12, 2008
कहीं वह फट तो नहीं पड़ता बिन बताए बारूद-सा?
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सोमवार, नवंबर 10, 2008
अश्वेत लोगों की राष्ट्रीय तरक्की
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हमारे हाथों में तख्तियां थी और होठों पर सवाल
सवाल ऐसे कि आखिर कब तक अमेरिकी सपने से बाहर रहेंगे हम?
बसों और व्यवसायों का बॉयकाट करते हुए हम
धरनों और प्रदर्शनों की हद तक गए
दुश्मनों के दुश्मन और दोस्तों के दोस्त
नीग्रो जाति अचानक अपने जेहनी उनींदेपन से जगी
देश भी साथ ही आगे बढ़ा और जनता ने गाया-
हम होंगे कामयाब लेकिन...कब?
तबसे क्या कुछ बदला है?
अभी कौन हमारा विरोध कर रहा है?
हमारे तमाम लोग तकलीफों में जीते हैं
ताउम्रअगर आप उन्हें कहें कि यीशु प्यार करते हैं
तुम्हें तो वे नाराज होकर कहेंगे कि मत लो उनका नाम
हमारे नौजवान अपनी मांओं के बटुए छीनते हैं
बलात्कार, लूट और गोलीबारी में बच्चों को मारते,
भाइयों को मारते हुए कौन हमें रोक रहा है अब?
अपनी मानवीय गरिमा से हमें कौन गिरा रहा है?
हजारों योग्य लोग सड़कों के उदास किनारों पर पड़े हैं
पेड़ों से लटकने की बजाय...और राष्ट्र आगे बढ़ता रहता है
लोग गाना गाते रहते हैं-
हम होंगे कामयाब-लेकिन कब?
पढ़े-लिखों और अभिजनों के पास समय नहीं है
इतने व्यस्त हैं वे अपनी निजी योजनाओं में
कि वे मदद का हाथ नहीं बढ़ा सकते
हममें से ज्यादातर को कैसी जिंदगी मिली?
क्या कुछ मूल्यवान छूटा हमसे?
क्या ढेरों पैसे और अच्छा वक्त हो तो
आप और मैं बेहतर व्यक्ति हो जाते हैं?
या यह हमारा अपना नकचढ़ा शासक वर्ग है
क्या हम तेजी से अपनी जमीन खोते जा रहे हैं?
माना हमने तरक्की की है और यह निश्चय ही महज संयोग नहीं
लेकिन कुछ अर्थों में वह भी हमारी दुखती रग हो गई है
असली तरक्की, मतलबपरस्ती और सनक से बाधित
हम उनकी तरह होने की कोशिश करते हैं
आततायी जब हमारी कसौटियां तय करता है
तो हम सिर्फ नकलची बनकर रह जाते हैं
लिहाजा देश को आगे बढ़ने दें और लोगों को गीत गाने दें
आर्थिक ताकत का मतलब तभी है
जब हम अपने ही भाइयों के चेहरे पर न थूकें
आततायी की पूजा करने का मतलब है
अंतत: उसकी नकल करना
अगर यह रवैया अभी नहीं बदलता है
मेरे भाइयो, मेरी बहनो
तो मुझे बताइये आखिर कब बदलेगा यह?
शुक्रवार, अक्टूबर 10, 2008
तो क्या यही जिंदगी है?
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गुरुवार, अक्टूबर 09, 2008
किस किस को बताएंगे जुदाई का सबब हम
रावल डैम पर बहुत सुकून से मैं फराज साहब की बेहद मशहूर गजल मेंहदी हसन साहब की आवाज में सुन रहा था. कई बार सुन चुका हूं...पर दिल है कि कभी भरता ही नहीं....तो लीजिए आपके लिए लयबद्ध तो नहीं, शब्दबद्ध गजल पेश कर रहा हूं.....
रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ
पहले से मरासिम न सही फिर भी कभी तो
रस्म-ए-रहे दुनिया ही निभाने के लिए आ
किस किस को बताएंगे जुदाई का सबब हम
तू मुझसे ख़फा है तो ज़माने के लिए आ
कुछ तो मेरे पिंदार-ए-मुहब्बत का भरम रख
तू भी तो कभी मुझको मनाने के लिए आ
इक उम्र से हूं लज्जत-ए-गिर्या से भी महरूम
ऐ राहत-ए-जां मुझको रुलाने के लिए आ
अब तक दिल-ए-खुशफहम को है तुझसे उम्मीदें
ये आखिरी शम्में भी बुझाने के लिए आ
बुधवार, अक्टूबर 08, 2008
महमूद दरवेश की डायरी के अंश की अगली कड़ी...
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बुधवार, अक्टूबर 01, 2008
महान कवि महमूद दरवेश की डायरी के कुछ दिलचस्प अंश
सोमवार, सितंबर 29, 2008
असफल राष्ट्रों के बीच भारत
रविवार, सितंबर 28, 2008
वह क्या सब देख पाते हैं?
शुक्रवार, अगस्त 29, 2008
क्या यही तो नहीं वह घड़ी?
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गुरुवार, अगस्त 28, 2008
भारत सरकार का रवैया और बिहार में महाप्रलय
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शुक्रवार, अगस्त 22, 2008
क्या इस जमीन को तुम प्यार नहीं करते?-महमूद दरवेश
एक सैनिक देखता है सपने में सफेद ट्यूलिप
वह सपने में देखता है सफेद ट्यूलिप
जैतून की डाली
और शाम को खिले-खिले प्रेमिका के वक्ष
उड़ती हुई आती है चिड़िया उसके सपने में
और बताती है वह नींबू के फूलों के बारे में
बौद्धिकों-सा गंभीर नहीं होता वह कभी
सपनों की बातें करते हुए जैसी भी उसे दिखती है चीजें
और लगती है गंध
वह समझ लेता है उन्हें उसी सरलता से
बताया उसने
मातृभूमि उसके लिए है
जैसे मां की बनाई हुई कॉफी
और रात घिरने पर वापस लौट आने की तलब
और यह जमीन है?
कहा उसने-मैं क्या जानूं इस जमीन को...
क्या करूं जब मेरी धमनियों और शरीर में इसकी वैसी अनुभूति नहीं आती
बताई जाती है कविताओं में जैसी
अनायास लगा मुझे जैसे मैं देखता रहा हूं जमीन को वैसे ही
जैसे कोई देखे किराने की दुकान
कोई सड़क
या फिर कोई अखबार
पूछा मैंने
पर क्या इस जमीन को तुम प्यार नहीं करते?
मेरे लिए जमीन तो है एक पिकनिक
शराब का एक गिलास
एक प्रेम-संबंध....
क्या इस जमीन के लिए कुर्बान कर सकते हो अपनी जान?
हरगिज नहीं
इस जमीन से मेरा जुड़ाव आसमान में संक्षिप्त उड़ान भर लेने
या जोशीला भाषण दे देने भर जैसा है बस
बाकी और कुछ नहीं
मुझे पढ़ाया गया कि इससे प्यार करो
पर दिल का नाता जुड़ नहीं पाया
मुझे तो मालूम ही नहीं कहां हैं इसकी जड़े और शाखाएं
या कैसी होती है इस पर उगी हुई दूब की गंध?
और इसके लिए कितना है तुम्हारा प्यार?
क्या वह भी वैसे ही दहकता है
जैसे दहकता है सूरज
और प्रज्ज्वलित होती हैं आकांक्षाएं?
उसने मेरी आंखों में आंखें डालकर देखा और बोलाः
मैं इसे प्यार करता हूं अपनी बंदूक की मार्फत
वैसे ही जैसे मिल जाए अतीत के कचरे के ढेर में कोई असबाब
और प्रकट हो जाए गूंगी-बहरी प्रतिमा उसमें से
पता ही न चल पाए क्या है इसका अभिप्राय और काल?
फिर बताने लगा वह
विदा के पलों के बारे में कि कैसे मुंह बंद किए हुए ही बिलख पड़ी उसकी मां युद्ध में भेजते हुए
कैसे उनकी कातर आवाज ने फिर से जगा दी
उसके तन-बदन में उम्मीद की एक नई किरण
लगा कि युद्ध मंत्रालय के ऊपर
शांति कपोतों के उड़ने के दिन फिर से लौट आएंगे जल्द ही अब
उसे तलब हुई सिगरेट की
कहा जैसे रक्त के कुंड से बचकर निकल आया हो-
मैंने सपने देखे थे सफेद ट्यूलिप के
जैतून की डालियों के
नींबू के पौधे पर भोर को आगोश में लेने को
आतुर बैठी चिड़िया के
बताओ, पर तुमने सचमुच देखा क्या?
क्या देखता? वही तो, जो किया मैंने....
खून से सनी गठरियां रेत में लुढ़कती जाती देखीं
और उन पर दाग दीं दनादन गोलियां-सीने में...पेट में....
कितनों को मारा?
मुश्किल है बताना...पर मेडल मुझे एक ही मिला
सुनकर पीड़ा हुई....पूछा
मैंनेः जिन्हें मारा उनमें से किसी के बारे में बताओ
अपनी सीट से वह थोड़ा हिला-डुला
तहाकर रखे गए अखबार को उलटा-पलटा
फिर बोला....जैसे सुना रहा हो कोई गीतः चट्टानों पर वह धराशायी हो गया था
बिल्कुल जैसे ढह जाता है कोई तंबू
सीने पर न तो था उसके कोई मेडल
न ही लगता था वह कोई प्रशिक्षित योद्धा
संभव है किसान रहा हो या मजदूर
या फिर फेरीवाला ही
बिल्कुल तंबू की तरह वह गिरा जमीन पर
और वहीं हो गया ढेर....
बांहें फैलाए जैसे हो नदी का कोई सूखा पड़ा पाट
मैंने उसकी जेब खंगाली
शायद मिल जाए कहीं नामोनिशान
वहां मिले महज दो फोटो-
एक उसकी बीवी लगती थी
दूसरी बेटी हो शायद
दुःख हुआ तुम्हें?
मैंने जानना चाहा
बीच में ही रोककर वह बोल पड़ाः
महमूद, मेरे दोस्त दुःख तो वैसा ही सफेद कबूतर है जो
लड़ाई के मैदान के आसपास फटकता भी नहीं
सैनिकों के लिए तो पाप है
दुःख की अनुभूति भी...पाप
मेरी मौजूदगी वहां थी
विध्वंस और मौत उगलने वाली मशीन बनकर
जिससे सारे आकाश को घेर लें
काले खौफनाक परिंदे ही परिंदे
फिर उसने बताया अपने पहले प्रेम के बारे में
और फिर सुदूर गलियों के बारे में इस युद्ध पर रेडियो और प्रेस में आती
प्रतिक्रियाओं के बारे में
उसे खांसी आई तो रूमाल से ढांप लिया उसने मुंह-
मैंने फिर पूछाः
क्या फिर हम कभी मिल पाएंगे दोबारा?
क्यों नहीं, पर यहां नहीं
कहीं दूर, किसी और शहर में दोस्त
चौथी बार उसको गिलाल भरते हुए मैंने पूछ लिया मजाक में-
क्या कहीं और खो गए?
अपनी मातृभूमि के बारे में कुछ तो कहो-
मुझे थोड़ी मोहलत दो यार, उसका जवाब आया
मेरे सपने हैं सफेद ट्यूलिप के गीतों से गूंजती
सड़कों के रोशनी से सराबोर घर के....मुझे गोलियां नहीं चाहिए
बल्कि चाहिए निस्सीम करुणा से लबालब एक दिल
मुझे चाहिए एक प्रकाशमान दिन....
बिल्कुल नहीं चाहिए उन्मादी फासिस्ट विजय
मैं ढूंढ रहा हूं कोई बच्चा
जिसके ठहाकों से भर डालूं अपना पूरा दिन
मुझे युद्ध का कोई हथियार नहीं चाहिए
मैं आया था यहां
सूरज का उगना देखने
पर क्या यहां सूरज का उगना देखने पर क्या देख रहा हूं-
महज इसका अवसान
उसने कहा अलविदा
और निकल पड़ा ढूंढने सफेद ट्यूलिप
जैतून की डाली पर बैठकर भोर को स्वागत करने को आतुर पंछी
समझ लेता है वह सभी बातें
बस उन्हें देखकर और सूंघकर
फिर कहा...मातृभूमि है उसके लिए
जैसे मां की बनाई हुई कॉफी
और रात घिरने पर वापस सुरक्षित लौट आने की तलब।
सोमवार, अगस्त 18, 2008
मृत्यु से दस मिनट पहले मैंने डाक्टर को बुलाया-महमूद दरवेश
यह हममें से एक था, हमारा अपना था
बीस सालों से रात की दीवारों पर सुनता रहा हूं यही पदचाप-
दरवाजा खुलता नहीं
पर वे अंदर जाते हैं-तीनों एक साथ
एक कवि, एक हत्यारे और किताबों से घिरा रहनेवाला एक पाठक।
आप थोड़ी-सी शराब पियेंगे, मैं पूछता हूं
हां-उनका जवाब
आप मुझे गोली कब मारनेवाले हैं?
तुम इत्मीनान से अपना काम करते रहो
एक पंक्ति से वे अपने ग्लास रखकर गाने लगते हैं
जनता के लिए एक गीत
बस अभी शुरू करते हैं-पर अपनी आत्मा से पहले
तुमने अपने जूते क्यों उतार रख दिए?
मैंने जवाब दिया- जिससे वे घूम लें सारी धरती पर
पर धरती तो इतनी अंधकारमय है
फिर तुम्हारी कविता प्रकाशमान क्यों रहती हैं?
अब भला तुम्हें फ्रेंच शराब इतनी क्यों भाती है?
अच्छा, तुम कैसी मौत चाहते हो?
नीली-जैसे खिड़की से झर रहे हों तारे-
आप और शराब लेंगे क्या?हां, हम और पियेंगे।
आप इत्मीनान से अपना काम करें-
मैं चाहूंगा कि आप हौले-हौले करें मेरा कत्ल
जिससे मैं रच सकूं अपनी आखिरी कविता
अपने दिल की पत्नी के नाम
अट्टहास करते हुए उन्होंने छीन लिया
खास तौर पर लिखे हुए कुछ शब्द!
पहचान-पत्र
दर्ज करें!
मैं एक अरब हूं
और मेरे पहचान-पत्र का नंबर है पचास हजार
आठ बच्चों का बाप हूं और नौवां गर्मियों के बाद आनेवाला है
आपको यह जानकर गुस्सा आया?
दर्ज करें!
मैं एक अरब हूं
एक खदान पर अन्य मजदूरों के साथ मजदूरी करता हूं
आठ बच्चों का बाप हूं
इन्हीं पत्थरों से मैं उनके लिए रोटी कपड़े और किताबें कमाता हूं....
आपके दरवाजे पर दान की याचना नहीं करता
न ही अपने आपको
आपकी सीढ़ियों पर धूल चाटने तक गिराता हूं
अब आप बताइये आपको गुस्सा आया?
दर्ज करें!
मैं एक अरब हूं
मेरा नाम तो है पर इसके साथ उपनाम नहीं
ऐसे देश में बीमार की तरह पड़ा हूं
जहां लोग-बाग उजाड़े जा रहे हैं
और मेरी जड़ें तो खोद डाली गई थीं
समय की उत्पत्ति से और युगों के प्रारंभ से भी पहले
चीड़ व जैतून के पेड़ों
और घास के उगने से भी पहले
मेरे पिता किसी मशहूर ऊंचे खानदान से नहीं
बल्कि हलवाहों के खानदान के थे
और मेरे दादा...थे एक किसान
न ही उनका खानदान ऊंचा था, न ही परवरिश...
उन्होंने मुझे सिखाया सूरज का स्वाभिमान
पढ़ाने-लिखाने से भी पहले
मेरा घरकिसी चौकीदार की मचान जैसा है
घास-फूस और डंठल से बना हुआ-
आप मेरे रहन-सहन से संतुष्ट हैं क्या?
मेरा नाम तो है इसके साथ पर उपनाम नहीं है
दर्ज करें!
मैं एक अरब हूं
आपने मेरे पुरखों के बाग-बगीचे पर कब्जा कर लिया है
और वह जमीन भी जिसे मैं जोतता था
बच्चों के साथ मिलकर
हमारे लिए तो कुछ छोड़ा ही नहीं
सिवा इन चट्टानों के....
तो क्या सरकार उनको भी अपने कब्जे में ले लेगी?
बार-बार जैसी कि घोषणा की जाती रही है?
इसलिए इसे पहले पन्ने पर ही दर्ज करें
मैं किसी से घृणा नहीं करता
न ही किसी का कुछ हथियाता हूं
पर जब भूख लगेगी मुझे
कब्जा करनेवालों का मांस ही होगा मेरा आहार
सावधान हो जाएं....
सावधान....
मेरी भूख से
और मेरे क्रोध से भी!
(अनुवाद- यादवेंद्र)
शुक्रवार, अगस्त 01, 2008
क्या पाकिस्तान के सारे लोग आतंकवादी या आई.एस.आई. के एजेंट होते हैं?
6 साल पहले बेहतर कमाई का सपना लिए महज 40 दिन की एकमात्र बेटी को पाकिस्तान छोड़ मोहम्मद सलीम हिंदुस्तान तो आया, लेकिन उसे अंदाजा नहीं था कि उसके लौटने की राह उतनी आसान नहीं होगी। संसद पर हुए हमले के बाद खुफिया एजंसियों की सक्रियता के चलते वह हिंदुस्तान में ही फंस गया। आईएसआई एजंट के रूप में भारत में जासूसी के आरोप में उसे नोएडा से गिरफ्तार कर लिया गया। गुनाह कबूल कर 6 साल जेल काटने के बाद उसे पाकिस्तान भेजने का कोर्ट ऑर्डर हो गया। पूरे परिवार समेत उसकी वापसी की राह देख रही बेटी अब 8 साल की हो गई है। हालांकि घर वापसी की राह अब भी उसे हवालात की सलाखों के पीछे से उतनी की कठिन दिख रही है, जितनी पहले थी।
पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में रहीमयार खां कस्बे का रहने वाला मोहम्मद सलीम हिंदुस्तानी सरबजीत की तरह यूं ही शराब पीकर सीमा पार नहीं कर गया था। अक्टूबर 2001 में अटारी बॉर्डर से होकर ड्राई फ्रूट बेचने वह दिल्ली आया था। 13 दिसंबर 2001 को संसद पर आतंकवादी हमला हो गया। खुफिया एजंसियों की धरपकड़ अभियान के चलते सलीम पुरानी दिल्ली का होटल छोड़ नोएडा आ गया। यहां वह सेक्टर-37 में एक ढाबे पर काम करने लगा। हालांकि वह ज्यादा दिन तक स्थानीय खुफिया इकाई की नजर से बच नहीं पाया। पुलिस की मदद से टीम ने उसे 22 जून 2002 को गिरफ्तार कर लिया। उस पर अवैध तरीके से भारत में रहने व जासूसी करने का आरोप लगाया गया। कोर्ट की तरफ से सलीम को मुहैया करवाए गए ऐडवोकेट इजलाल अहमद बर्नी ने बताया कि जिस समय उसे गिरफ्तार किया गया था, उस समय उसका वीसा समाप्त होने में एक दिन का समय बाकी था। उसे फंसाने के लिए फर्जी तरीके से दस्तावेज़ तैयार किए गए। बर्नी ने बताया कि अदालती कार्रवाई लंबी खिंचने के कारण जल्द रिहाई के लिए सलीम ने सभी आरोप स्वीकार कर लिए। अदालत ने उसे 6 साल की कैद व 20 हजार रुपये के जुर्माने की सजा सुनाई। 2 जुलाई 2008 को सज़ा पूरी होने से पहले 1 जुलाई को उसने जुर्माने की रकम जमा करवा दी। बावजूद इसके पुलिस उसे 7 जुलाई को जेल से रिहा करवा कर बाढ़मेर चेक पोस्ट पर लेकर गई। वहां चेक पोस्ट बंद हो जाने के कारण उसे बाघा बॉर्डर ले जाया गया, लेकिन वहां उनके दस्तावेज स्वीकार नहीं किए गए। पाकिस्तानी चेक पोस्ट ने सलीम को वापस भेजने के दस्तावेज़ लाने के लिए केंद्रीय गृह मंत्रालय के जरिए कहा।